Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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१५८] प्राकृतपैंगलम्
[२.१९० है, जहाँ तीसरी व्युत्पत्ति नहीं मानी जा सकती। हमने 'इच्छति कुत्र' वाला अनुवाद ठीक समझा है, वैसे कोष्ठक में अन्य अर्थ का संकेत भी कर दिया गया है ।। शंभु छंदः
अवलोआ णं भणि सुच्छंदं मण मज्झे सुक्खं संवुत्तं,
___ सुपिअं अंते ठवि हत्था दिज्जसु कुंतीपुत्तं संजुत्तं ॥ गण अग्गा दिज्जसु एअं किज्जसु अंते सत्ता हारा जं
इअ बत्तीसा णिअ मत्ता पाअह छंदो संभू णामा अं ॥१९४॥ १९४. यह शोभन छंद है, ऐसा कह कर, मन में सुख का अनुभव कर तुम (इसे) देखो। इस छंद के आरंभ में कुन्तीपुत्र (गुरुद्वयात्मक गण) से युक्त हस्त (सगण) देकर इस तरह फिर गणों की रचना करो; फिर सुप्रिय (लघुद्वय) स्थापित करो; चरण के अंत में सात हार (गुरु) की स्थापना करो, इस प्रकार जहाँ बत्तीस मात्रा प्रत्येक चरण में हो, वह शंभु नामक छंद है।
(शंभुः-सगण, दो गुरु (कर्ण), सगण, दो गुरु, दो लघु (सुप्रिय), सात गुरु=||5, 55, IIS, 55, II, 5555555 =३२ मात्रा, १९ वर्ण) ।
टि०-अवलोआ णं अवलोकय ननु; ठवि < स्थापयित्वा; पूर्वकालिक क्रिया । दिज्जसु, किज्जसु-विधि प्रकार के मध्यम पुरुष ए० व० के रूप । पाअह-< पादेषु, अधिकरण ब० व० का रूप दे०, भूमिका ।
जहा,
सिअविट्ठी किज्जइ जीआ लिज्जइ बाला वुड्डा कंपंता,
वह पच्छा वाअह लग्गे काअह सव्वा दीसा झंपंता । जइ जड्डा रूसइ चित्ता हासइ अग्गी पिट्ठी थप्पीआ,
___ कर पाआ संभरि किज्जे भित्तरि अप्पाअप्पी लुक्कीआ ॥१९५॥ [शंभु] १९५. उदाहरण:
ठंड की वर्षा (महावट) हो रही है, जीव लिया जा रहा है, बच्चे और बूढ़े जोड़े के मारे काँप रहे हैं, पछाँह हवाएँ चल रही हैं, शरीर से लगती हैं, सब दिशाएँ (जैसे) घूम रही हैं। यदि जाड़ा रुष्ट होता है, तो हे सखि, चिंता होती है, आग को पीठ की ओर स्थापित किया जाता है, हाथ और पैरों को सिकोड़ कर अपने आप को किसी तरह छिपाया जाता है।
टि०-सिअविट्ठी-< शीतवृष्टिका > सीअविट्ठिआ > सीअविट्ठिअ > सीअविट्ठी । यहाँ छन्दोनिर्वाहार्थ प्रथमाक्षर की दीर्घ ध्वनि 'ई' को ह्रस्व कर दिया गया है। किज्जइ, लिज्जइ-कर्मवाच्य के रूप । वाअह-< वाताः, कर्ता ब० व० में 'ह' विभक्ति, दे० भूमिका ।
काअह-< काये (अथवा कायेषु) अधिकरण के लिए 'ह' विभक्ति, जो अधिकरण ए० व० ब०व० दोनों में पाई जाती है, दे० भूमिका ।
संभारि-< संभार्य (अथवा संभाल्य) पूर्वकालिक क्रिया रूप । (हि० सँभलना, राज० समाळबो (-*सम्हाळबो) १९४. भणि-N. भण । सुच्छंद-C. N. ए छंदं । सुपिअं-C. सुपिअ । हत्था-C. N. हत्थो । दिज्जसु-C. दिज्जहु (उभयत्र)। बत्तीसा णिअ-C. 'णअ, N. वत्तीसा पअला । पाअह-C. पाअहि, N. सुणु । णामा-C. “णामो, N. संभूणामेअं । १९५. विट्ठी-C. रिट्ठा । किज्जइ-N. किज्जिय । जीआ-C. जीवा । बाला-A. बाल । वुड्डा-0. वूढा । पच्छा-N. पश्चा । लग्गेN. लग्गो । जइ-C. जव, N. जब । जड्डा-N. जज्झा । रूसइ-C. N. O. रोसइ । हासइ-C. होइ, N. हो सइ । पिट्ठी-C. पट्टे, B. पेढे । थप्पीआ-0. थक्कीआ । संभरि-C. सम्मरि । किज्जे-C. किज्जइ ।
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