Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् पद्यों के बारे में मैंने अन्यत्र संकेत किया था कि "यद्यपि गाथासप्तशती के टीकाकारों ने नीतिपरक पद्यों को भी श्रृंगार के परिपार्श्व में ही रखकर व्याख्या की है, तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि ये पद्य पूर्णतः नीतिसम्बन्धी हैं ।"३ परवर्ती अपभ्रंश साहित्य में जोइंदु और रामसिंह की रचनाओं तथा हेमचन्द्र द्वारा उद्धृत कतिपय दोहों में यह परम्परा मिलती है। हेमचन्द्र के व्याकरण में ऐसे पद्य उपलब्ध हैं :
गुणहिँ न संपइ कित्ति पर, फल लिहिआ भंजति (भुंजंति)।
केसरि न लहइँ बोड्डिअवि; गय लक्खेहिँ घेप्पंति । (३३५) 'गुणों से कीर्ति भर मिल पाती है, सम्पत्ति नहीं, लोग भाग्य में लिखा फल भोगते हैं । शेर को कोई कौड़ी में भी नहीं खरीदता, पर हाथी लाखों से खरीदे जाते हैं।' छन्दोनुशासन में उद्धृत एक पद्य में कुलक्षणा नारी का संकेत मिलता है :
'जासु अंगहिँ घणु नसा-जालु, जसु पिंगल-नयण-जुओ जसु दंत परिरल-विअडुन्नय
न धरिज्जइ दुह-करिणी मत्त-करिणि जिवं घरिणि दुन्नय ॥(२७) यहाँ घने नासिका-विवर, पीले नेत्र तथा विरल दांतों वाली पत्नी को कुलक्षणा कहा गया है, जो प्रा० पैं० के निम्न पद्य का पूर्वरूप जान पड़ता है।
भोहा कविला सच्चा णिअला, मज्झे पिअला णेत्ता जुअला ।
रुक्खा वअणा दंता विरला, केसे जिविआ ताका पिअला ॥ (२-९७) जीवन के अन्य अनुभवों से संबद्ध नीतिमय उपदेश भी प्रा० पैं० में मिलते हैं। आगे चलकर नीतिपरक पद्यों की यही परंपरा रहीम, तुलसी, वृन्द आदि के दोहों तथा गिरधरदास और दीनदयाल के नीतिपरक एवं अन्योक्तिपरक पद्यों तक चली आई है। शांतरसपरक मुक्तकों की परंपरा भी यहां मिलती है। संसार की असारता का संकेत कर मन को पाप से हटाने की चेष्टा करता कवि बब्बर कहता है :
अइचल जोव्वणदेहधणा, सिविअणसोअर बंधुजणा ।
अवसउ कालपुरीगमणा, परिहर बब्बर पाप मणा ॥ (२-१०३) भक्तिकालीन कविता में कबीर, सूर, तुलसी आदि ने संसार की असारता तथा मन की चंचलता का स्थान स्थान पर संकेत किया है किंतु दर्बारी कवि बब्बर तथा इन भक्त कवियों की इस तरह की भावनाओं में कृत्रिमता तथा स्वाभाविकता की पहचान मजे से की जा सकती है।
१८. (२) स्तोत्र मुक्तक-स्तोत्र मुक्तकों की परंपरा वैसे तो वैदिक सूक्तों तक में ढूंढी जा सकती है, किंतु साकारोपासना से संबद्ध स्तोत्र मुक्तक साहित्यिक संस्कृत की ही देन हैं। बाण का 'चंडीशतक', मयूर का 'सूर्यशतक', जैन कवि मानतुंग का 'भक्तमरस्तोत्र', शंकराचार्य की 'सौंदर्यलहरी' प्रसिद्ध स्तोत्र काव्य हैं तथा संस्कृत के कई फुटकर स्तोत्र मुक्तक प्रसिद्ध हैं। प्राकृत-अपभ्रंश में भी ऐसे अनेक स्तोत्र मुक्तक लिखे गये होंगे । अपभ्रंश में तीर्थंकर नेमिनाथ तथा महावीर से संबद्ध अनेक स्तोत्र काव्य उपलब्ध हैं। प्रा० पैं० के स्तोत्र मुक्तक ब्राह्मण धर्म के देशी भाषा निबद्ध स्तोत्रों की परम्परा का संकेत करते हैं । इनमें देवी तथा शिव की स्तुति से संबद्ध पद्य संख्या में सबसे अधिक हैं। कृष्णस्तुति से संबंध रखनेवाले ३ पद्य मिलते हैं, तथा एक अतिरिक्त पद्य में कृष्ण द्वारा गोपी की छेड़खानी का संकेत भी मिलता है । एक एक पद्य राम (२.२११) तथा दशावतारों (२.२०७) की स्तुति से संबद्ध है। दशावतार स्तुतिवाले पद्य पर जयदेव के गीत गोविंद का प्रभाव संकेतित किया जा चुका है। इन पद्यों को भक्तिकालीन भक्तिपरक रचनाओं का प्रारूप मानने की चेष्टा करना व्यर्थ ही होगा। वस्तुतः भक्ति-भावना को जन्म देने में जिन सामाजिक तत्त्वों का हाथ है, उनका हाथ इन पद्यों की रचना में सर्वथा नहीं जान पड़ता । ये रचनायें उन दर्बारी कवियों की है, जिन्हें 'भक्त' नहीं कहा जा सकता । वे केवल ब्राह्मणधर्मानुयायी कवि हैं, जो कभी कभी आस्तिकता की व्यंजना कराने के लिये तत्तत् १. एस० पी० पंडित : हेमचन्द्र-प्राकृतव्याकरण पृ० ५५६ (द्वितीय संस्करण) २. H. D. Velankar : Chhandonusasana of Hemacandra J. B. R. A. S. vol. 19 (1943) p. 68
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