Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् की 'गाहासत्तसई' में उपलब्ध गाथायें भारतीय साहित्य के पहले शृंगारी मुक्तक हैं। इन्हीं की प्रेरणा से संस्कृत साहित्य में भी शृंगारी मुक्तक परम्परा चल पड़ी और भर्तृहरि, अमरुक, तथा अन्यान्य परवर्ती कवियों की मुक्तक कृतियाँ आईं। जैसा कि कहा जाता है हाल की गाथायें सर्वप्रथम हमारे समक्ष "सेक्यूलर पोयट्री" का रूप उपस्थित करती हैं। गाथासप्तशती में ग्रामीण जीवन के सरस चित्र देखने को मिलते हैं। कृषक और कृषकवनिता, गोप और गोपियों का जीवन, खेतों की रखवाली करती शालिवधुएं, धान कूटती ग्रामीण नारी के चित्र लोकजीवन का वातावरण निर्मित कर देते हैं । किंतु इससे भी बढ़कर गाथासप्तशती की गाथाओं में प्रेम के विविध पक्षों के चित्र देखने को मिलते हैं । विवाहित दम्पती के संयोग तथा वियोग के धूपछाही चित्रों के अलावा यहाँ उन्मुक्त प्रणय के चित्र भी हैं, जिनमें से कुछ में कहीं कहीं उच्छृखलता भी दिखलाई पड़ती है । सहेट की ओर जाती परकीया, गुप्त संकेत करती स्वयंदूती, उपनायक के साथ रतिव्यापार में रत नायिका को सचेत करती सखी या दूती के चित्र रीतिकालीन हिंदी कविता के आदिस्रोत हैं । इन प्रणय चित्रों के परिपार्श्व के रूप में विविध प्राकृतिक दृश्यों तथा ऋतुओं का वर्णन कर गाथाकार ने नायक या नायिका के मनोभावों की अपूर्व व्यंजना कराई है। आकाश में घिरे बादलों (उन्नत पयोधर) को दिखाती स्वयंदूती किसी पथिक को बिना बिछौने वाले पथरीले गांव में रुकने को कहती अपनी प्रणयाभिलाषा व्यंजित कर रही है।
पंथिअ ण एत्थ सत्थरमत्थि मणं पत्थरत्थले गामे ।
ऊणअपओहरं पेक्खिऊण जड़ वससि ता वससु ॥ अन्यत्र शेफालिका कुंज में रतिव्यापार में संलग्न क्वणद्वलया परकीया हालिकस्नुषा को सचेत करती सखी इशारा कर रही है कि चूड़ियों की झनकार न करे, कहीं ससुर न सुन लें ।
उच्चिणसु पडिअकुसुमं मा धुण सेहालिअं हलिअसुण्हे ।
अह ते विसमविरावो ससुरेण सुओ वलअसहो । इसी तरह के अनेकों चित्रों की गूंज अमरुक, शीलाभट्टारिका, गोवर्धन, जयदेव आदि के मुक्तक काव्यों में भी सुनाई पड़ती है।
अमरुक के मुक्तक संस्कृत श्रृंगारी मुक्तकों के मणिदीप हैं, जिन्होंने भावी मुक्तक कवियों का मार्गदर्शन किया है। श्रृंगार के विविध पक्षों को चित्रित करने में अमरुक की तूलिका अपना सानी नहीं रखती और उसके चित्रों का बिना तड़क भड़क वाला, किंतु अत्यधिक प्रभावशाली रंग-रस, उसकी रेखाओं की बारीकी और भंगिमा अमरुक के कारुवर की कलाविदग्धता का सफल प्रमाण है। अनुभव, सात्त्विक भाव और संचारी भाव के चित्रण में अमरुक सिद्धहस्त है,
और नखशिखवर्णन के लिए पर्याप्त क्षेत्र न होने पर भी नायिका के सौंदर्य की एक दो रेखायें ही उसके लावण्य की व्यंजना कराने में पूर्णत: समर्थ दिखाई पड़ती है। अमरुक ने आने वाले कई शृंगारी मुक्तक कवियों और कवयित्रियों को प्रभावित किया है। श्रृंगार के उद्दीपन विभाव के रूप में रतिरसग्लानि का अपहरण करते वसन्त-वायु का निम्न वर्णन अमरुक की कुशल चित्रकारिता का प्रमाण है :
रामाणां रमणीयवक्त्रशशिनः स्वेदोदबिन्दुप्लुतो, न्यालोलालकवल्लरी प्रचलयन् धुन्वन्नितम्बाम्बरम् ।
प्रातर्वाति मधौ प्रकामविकसद्राजीवराजीरजोजालामोदमनोहरो रतिरसग्लानि हरन्मारुतः ॥
अपभ्रंश साहित्य में शृङ्गारी मुक्तकों की एक और परम्परा देखने को मिलती है। वैसे तो अपभ्रंश शृङ्गारी मुक्तकों के चिह्न कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' में पुरूरवा की विरहोक्तियों में ही मिल जाते हैं, किन्तु हेमचन्द्र के व्याकरण में उद्धत शृङ्गारी मुक्तकों में सर्वथा भिन्न वातावरण है। पुरूरवा के मुक्तकों में टीस, वेदना और पीड़ा की कसक है, हेमचन्द्र वाले दोहों में शौर्य का ज्वलन्त तेज, हंसी खुशी मिलते युवक प्रेमियों का उल्लास, एक दूसरे से विछुड़ते प्राणियों की वेदना को विविध चित्र हैं । हेमचन्द्र के इन दोहों में, जिन्हें व्याकरण की शाण पर तराशकर उन्होंने हमारे सामने रखा है, हमें हेमचन्द्र के समय के गुजरात और राजस्थान का लोकजीवन तरलित मिलता है। इन दोहों में एक ओर यहाँ के जीवन का वीरतापूर्ण चित्र मिलता है, दूसरी ओर लोकजीवन की सरस शृंङ्गारी झाँकी । इसमें प्रणय के भोलेपन ओर शौर्य की प्रौढि की द्वाभा दिखाई देती है । हेमचन्द्र के द्वारा पालिश किये हुए रत्नों का पानिप अनूठा है, पर कल्पना करना असंगत न होगा कि लोकजीवन के कलकंठ की खान से निकली इन मणियों का असली लावण्य कैसा रहा
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