Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् का भाषाशास्त्रीय अनुशीलन
प्राकृतपैंगलम् की पुरानी पश्चिमी हिन्दी
२२. हेमचन्द्र के द्वारा 'शब्दानुशासन' में जिस अपभ्रंश को परिनिष्ठित रूप दिया गया था, वह भले ही अपभ्रंश के कवियों के द्वारा सोलहवीं सदी के जैन चरितपुराण काव्यों तक अपनाई जाती रही हो, उसकी जीवन्तता हेमचन्द्र से भी लगभग सौ वर्ष पूर्व ही समाप्त हो गई थी। यश:कीर्ति तथा रइधू के परवर्ती जैन पुराण काव्य उस भाषा को पकड़े थे, जिसकी परिसमाप्ति की सूचना हेमचन्द्र का व्याकरण ही देता जान पड़ता है। शौरसेनी प्राकृत के प्रदेश में बोली जाने वाली अनेकानेक विभाषायें जो सांस्कृतिक तथा साहित्यिक दृष्टि से नागर अपभ्रंश के द्वारा अभिभूत थीं, समय पाकर उन्मुक्त हुईं और अपने अपने पैरों पर खड़ी हो गई । गुजरात में बोली जाने वाली विभाषा ने, जो मारवाड़ में बोली जानेवाली विभाषा से घनिष्ठतया संबद्ध थी, परवर्ती काल में गुजराती रूप धारण किया । इसी तरह मध्यदेश के तत्तत् वैभाषिक क्षेत्र ने क्रमश: मारवाड़ी (पश्चिमी राजस्थानी), पूर्वी राजस्थानी (हाडौती-जैपुरी), खड़ी बोली, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुन्देली, आवन्ती (मालवी) को जन्म दिया। इन सभी वैभाषिक क्षेत्रों की निजी विशेषतायें संभवत: प्राकृत-काल और अपभ्रंश-काल में भी मौजूद थीं, किन्तु आज प्रत्येक वैभाषिक प्रवृत्ति के साहित्य के अभाव में हम कह नहीं सकते कि तत्तत् वर्ग की तत्कालीन भेदक प्रवृत्तियाँ क्या थीं । जब हम यह कहते हैं कि सौराष्ट्र से लेकर अन्तर्वेद तक, स्थाण्वीश्वर से लेकर नर्मदा तक समग्र प्रदेश शौरसेनी प्राकृत या परवर्ती काल में नागर अपभ्रंश का क्षेत्र था, तो हमें इस उक्ति को अक्षरश: इसी अर्थ में न लेना होगा। ऐसी मान्यता भाषावैज्ञानिक दृष्टि से भ्रांत धारणा को ही जन्म देगी। तत्तत् जानपदीय बोलियों का निजी अस्तित्व प्राचीन काल में भी था और जब हम गाथासप्तशती की प्राकृत, विक्रमोर्वशीय की अपभ्रंश, हेमचन्द्र की नागर अपभ्रंश, संदेशरासक की गुर्जर अपभ्रंश, प्राकृतपैंगलम् या कीर्तिलता की पुरानी हिंदी (अवहट्ठ), और कान्हडदेप्रबंध की जूनी राजस्थानी (या जूनी गुजराती) की बात करते हैं, तो हम भाषा के उस रूप का संकेत करते हैं, जो तत्तत् काल की साहित्यिक पद्य-शैली से अधिक संबद्ध है, भाषा के कथ्य रूप से कम । वैसे उक्तिव्यक्ति जैसे पुरानी पूरबी हिंदी या मुग्धावबोध औक्तिक जैसे पुरानी राजस्थानी-गुजराती के औक्तिक ग्रन्थों से नि:संदेह उस समय की कथ्य भाषा पर पूर्ण प्रकाश पड़ता है। प्राकृतपैंगलम् की पुरानी हिंदी के संबंध में भी यह संकेत कर देना आवश्यक होगा कि ऐसी भाषा ११ वीं शती से लेकर १४ वीं शती तक, जिस काल की रचनायें इस ग्रंथ में संकलित हैं, कभी भी कथ्य रूप में प्रचलित नहीं रही होगी। फिर भी प्राकृतपैंगलम् की इस साहित्यिक "खिचड़ी' भाषा-शैली में कई ऐसे तत्त्व मिल जायेंगे, जो उस काल की कथ्य भाषा की अनेक विशेषताओं का संकेत कर सकते हैं।
२३. प्राकृतपैंगलम् के मुक्तक काव्यों की भाषा-शैली उस युग के भाषा तत्त्वों का संकेत दे सकती है, जब अपभ्रंशकालीन मध्यदेशीय विभाषाओं में कतिपय ध्वन्यात्मक तथा आकृतिगत परिवर्तन हो चुके थे, पर उसका पूरी तरह इतना गुणात्मक परिवर्तन न हो पाया था कि वह स्पष्ट रूप में सूर की ब्रजभाषा या परवर्ती पूरबी राजस्थानी के समग्र लक्षणों से विभूषित हो । वस्तुतः इसमें संक्रांतिकालीन भाषा की गतिविधि के वे रूप मिलते हैं, जब मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा आधुनिक आर्यभाषा बनने के लिये केंचुली बदल रही है, पूरी तरह उसने पुरानी केंचुली को हटाया नहीं है, पर कुछ स्थानों पर वह हटाई भी जा चुकी है। यह भाषाशैली उस दशा का संकेत करने में समर्थ है, जब भाषा की तत् दशा में मात्रात्मक परिवर्तन हो रहा था, वह मेंढक की कुदान के पहले साँप की तरह आगे की ओर रेंग रही थी। वस्तुतः हेमचन्द्र से कुछ पहले ही नागर या शौरसेनी अपभ्रंश क्षेत्र की विभाषायें नवीन भूमिका में अवतरित होने की तैयारी कर रही थीं । वे अब बिलकुल नये रूप में आना चाहती थीं, नई आवश्यकताओं के अनुरूप, नये परिधान और नये पात्र का रूप धारण करके । हेमचन्द्र के समय की कथ्य भाषा ठीक वही नहीं रही थी जो हमें शब्दानुशासन के अष्टम अध्याय के 'दूहों' में मिलती है। उस समय की बोलचाल की भाषा का व्यवहृत रूप न लेकर हेमचंद्र ने अपभ्रंश के परिनिष्ठित रूप का ही व्याकरण उपस्थित किया है । पर वैयाकरणों के बाँध देने पर भी कथ्य भाषा की स्वाभाविक १. Dr. Tessitori : Notes on o. W. R. (Indian Antiquary Feb. 1914, P. 22). तथा N. B. Divatia : Gujarati
Language & Literature vol. II p. 2 २. हेमचन्द्र ने शब्दानुशासन की रचना १११२ ई० (११६८ वि० सं०) में की थी।
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