Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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हिन्दी साहित्य में प्राकृतपैंगलम् का स्थान
३९१ देवीदेवता की स्तुति में एक आध पद्य गा उठते हैं । रीतिकालीन कवियों की तरह ये भी मुंह का जायका बदलने के लिये कभी कभी भक्ति-श्रद्धा की बातें करने वाले भर हैं।
8 १९ (३) राजप्रशस्ति मुक्तक :-भारतीय साहित्य में राज प्रशस्ति मुक्तकों की शुरूआत वेदों तक ढूँढ़ी जा सकती है। ऋग्वेद के 'नाराशंसी' एवं 'दानस्तुतियों' को राजप्रशस्ति काव्य माना जाता है । पाश्चात्य विद्वानों के मतानुसार ये दानस्तुतियाँ किन्हीं ऐतिहासिक राजाओं के दान से संतुष्ट ऋषियों की रचनायें हैं, किंतु पं० बलदेव उपाध्याय इन्हें किसी व्यक्ति विशेष की स्तुतियां नहीं मानते । उपाध्याय जी ने यह भी संकेत किया है कि ये दानस्तुतियां वस्तुतः दानस्तुतियां न होकर, उनका केवल आभास-मात्र है । साहित्यिक संस्कृत में राजस्तुतिपरक मुक्तकों की परम्परा का आरंभ शिलालेखों में देखा जाता है। रुद्रदामन और समुद्रगुप्त के शिलालेखों में उनकी वीरता तथा उदारता का वर्णन पाया जाता है। कालिदास के बहुत पहले ही यह साहित्यिक शैली परिपक्व हो चुकी थी। हरिषेण और वातास भट्टि के राजप्रशस्तिपरक काव्य इसके प्रमाण हैं। यहां तक कि कालिदास के इन्दुमतीस्वयंवर संबंधी राजस्तुति-पद्यों पर भी इसका प्रभाव है। संस्कृत के सुभाषितों में अनेकों राजस्तुतिपरक पद्य प्रसिद्ध हैं तथा सुभाषित ग्रंथों में इनका संग्रह पाया जाता है। संस्कृत के परवर्ती नाटकों, महाकाव्यों तक में ऐसे पद्यों की छौंक मिलती है, जो मूलतः मुक्तक रूप में किसी न किसी आश्रयदाता राजा की स्तुति में लिखे गये थे। समासांत-पदावली में निबद्ध इन पद्यों में प्रायः राजा की युद्धवीरता या दानवीरता की गाथा पाई जाती है । मुरारि के 'अनर्घराघव' नाटक के इस पद्य पर इस शैली का पर्याप्त प्रभाव देखा जा सकता है :
नमन्नृपतिमण्डलीमुकुटचन्द्रिकादुर्दिनस्फुरच्चरणपल्लवप्रतिपदोक्तदोःसंपदा ।
अनेन ससृजेतरां तुरगमेधमुक्तभ्रमत्तुरंगखुरचन्द्रकप्रकरदन्तुरा मेदिनी ॥ (१-३४) जिन दिनों प्रा० पैं० में संकेतित यशस्वी कवि विद्याधर काशीश्वर की वीरता का वर्णन कर रहे थे, उन्हीं दिनों नैषधीयचरित के पंडित कवि श्रीहर्ष भी काशीश्वर की अश्वसेना के करिश्मे की दाद दे रहे थे :
एतद्बलैः क्षणिकतामपि भूखुराग्रस्पर्शायुषां रयरसादसमापयद्भिः ।।
दृक्पेयकेवलनभःक्रमणप्रवाहैवहिरलुष्यत सहस्त्रगर्वगर्वः ॥ (नैषधीय ११.१२७) प्राकृत के फुटकर राजप्रशस्ति मुक्तक बहुत कम मिलते हैं । वाक्पतिराज ने 'गउडवहो' में अपने आश्रयदाता की कीर्ति का गान किया है। अपभ्रंश में आभीरों के शौर्योन्मद जीवन ने शौर्य-संबंधी मुक्तक परंपरा को जन्म दिया, जिनमें कहीं कहीं शौर्य और प्रणय दोनों की धूपछाहीं एक साथ देखने को मिल जाती है। प्रा० पैं० में अनेकों : पद्य मिलते हैं । कर्ण, काशीश्वर, हम्मीर, साहसांक, तथा मंत्रिवर चंडेश्वर की वीरता एवं उदारता के पद्य संस्कृत की तत् काव्य-परंपरा से पर्याप्त प्रभावित है।
'भंजिअ मलअ चोलवइ णिवलिअ गंजिअ गुज्जरा, मालवराअ मलअगिरि लुक्किअ परिहरि कुंजरा । खुरासाण खुहिअ रण मह लंघिअ मुहिअ साअरा, हम्मीर चलिअ हारव पलिअ रिउगणह काअरा ॥ (१.१५१)
खुर खुर खुदि खुदि महि घघर रख कलइ णणगिदि करि तुरअ चले, टटटगिदि पलइ टपु धसइ धरणि धर चकमक कर बहु दिसि चमले । चलु दमकि दमकि दलु चल पाइक्क घुलकि घुलकि करिवर ललिआ,
वर मणुपअल करइ विपख हिअअ सल हमिर वीर जब रण चलिआ ॥ (१.२०४) प्राकृतपैंगलम् के इन्हीं राजस्तुतिपरक पद्यों की परंपरा रीतिकाल में भी चलती रही है। एक ओर इस परंपरा का विकास चारणों के डिंगलगीतों में, दूसरी ओर भूषण, मतिराम, पद्माकर के राजस्तुतिपरक कवित्तों में, तीसरी ओर 'पृथ्वीराजरासो', सूदनकृत 'सुजानचरित्र' जैसे वीररसात्मक प्रबंधकाव्यों में पाई जाती है।
२० (४) शृंगारी मुक्तक:-शृंगारी मुक्तक काव्य-परम्परा का उदय सर्वप्रथम प्राकृत में दिखाई पड़ता है। हाल १. पं० बलदेव उपाध्यायः वैदिक साहित्य पृ० ११२ ।
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