Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम् हो चली थीं। वलभी में भट्टि तथा माघ जैसे संस्कृत कवियों को, कन्नौज में भवभूति, वाक्पतिराज तथा राजशेखर जैसे संस्कृत-प्राकृत कवियों को, माहिष्मती में मुरारि एवं मान्यखेट में त्रिविक्रम, स्वयंभू, त्रिभुवन और पुष्पदंत जैसे संस्कृत एवं अपभ्रंश कवियों को राजाश्रय मिला था । जैसा कि राजशेखर ने बताया है, इनके दरबारों में संस्कृत, प्राकृत, पैशाची तथा अपभ्रंश सभी भाषाओं के कवि सम्मानित थे । इसके बाद की शताब्दियों में भी चौहानों ने जयानक जैसे संस्कृत कवि तथा अनेक अज्ञात पुरानी हिंदी के भट्ट कवियों को आश्रय दिया था। काशी के गहडवाल राजाओं के यहाँ 'नैषध' के रचयिता श्रीहर्ष, 'उक्तिव्यक्तिप्रकरण' के लेखक दामोदर जैसे संस्कृत कवि व पंडित ही नहीं थे, अपितु महामंत्री विद्याधर जैसे कवि भी थे, जो देशी भाषा में रचना करना फख्र समझते थे । राहुल जीने कलचुरि कर्ण के यहाँ भी कुछ हिंदी कवियों का होना माना है, जिनमें से एक कवि बब्बर के कुछ पद्य 'प्राकृतपैंगलम्' में मिलते हैं । ईसा की ग्यारहवींबारहवीं सदियों में मालवा के परमार तथा गुजरात के सोलंकियों ने भी संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश के साहित्यिक विकास में अपूर्व योग दिया था । गुजरात के सोलंकी राजा जयसिंह तथा कुमारपाल ने कई जैन कवियों व पंडितों को प्रश्रय दिया था, जिनमें हमेचन्द्रसूरि प्रमुख हैं। मालवा के नरेश मुंज तथा उनका भतीजा भोज साहित्य तथा साहित्यिकों के प्रेमी थे । ये दोनों स्वयं भी संस्कृत तथा अपभ्रंश (देशी भाषा) में कविता करते थे।
साहित्यिक प्रसार की दृष्टि से यह काल चाहे महत्त्वपूर्ण हो, किंतु राजनीतिक एकता तथा सुस्थिरता का अभाव देश की भावी स्वतंत्रता के लिये घातक सिद्ध हो रहा था। जैसा कि मैंने अन्यत्र निर्देश किया है, उत्तरी भारत की राजनीतिक स्थिति आठवीं-नवीं शती में इतनी सुदृढ न थी । “इन राजाओं में निरंतर विरोध चला आ रहा था और प्रत्येक राजा कन्नौज पर अधिकार जमाना चाहता था, क्योंकि कन्नौज उत्तरी भारत में साम्राज्यवाद का प्रतीक समझा जाता था। यहाँ तक कि मान्यखेट के राष्ट्रकूट तक कन्नौज पर कई बार चढ़ आये थे और 'अंतर्वेद उनकी अश्वसेना के खुरपुटों से निनादित हो गया था ।' पाल भी निश्चिंत न थे तथा उनकी भी कन्नौज पर 'गध्रदृष्टि' थी।"१ नवीं शती उत्तरार्ध तथा दसवीं शती में उत्तरी भारत फिर एक बार विदेशी आक्रमणों के विरुद्ध मजबूत गढ़ बन गया था, किंतु ग्यारहवीं शती से ही कन्नौज की प्रतिष्ठा समाप्त हो चली थी। इस समय से लेकर शहाबुद्दीन गोरी के आक्रमण तक उत्तरी भारत राजाओं के पारस्परिक कलह, वैमनस्य तथा अहंभाव से इतना जर्जर हो चुका था कि इस समय उत्तरी भारत में लगभग ७ राज्यों के होने पर भी कोई एक राज्य ऐसा न था, जिसे उत्तरी भारत की एकता का प्रतीक कहा जा सके । फलस्वरूप जब पृथ्वीराज को ११९३ ई० में शहाबुद्दीन गोरी ने पराजित किया, तो उसकी सहायता अन्य किसी भी राजा ने न की । मुसलमानों की जिगीषा के लिये यह राजनीतिक परिस्थिति विशेष लाभदायक सिद्ध हुई, उन्होंने एक शताब्दी के भीतर ही उत्तरी भारत के समस्त हिंदू राज्यों को एक एक कर विध्वस्त कर डाला ।
१४. पुरानी हिन्दी के कवियों में से अधिकांश इन्हीं राजाओं के आश्रित थे । इन्हीं के आश्रय में रहकर वे उनकी युद्धवीरता, दानवीरता, उदारता आदि की प्रशंसा में मुक्तक पद्य बनाया करते थे। आश्रयदाता के मनोरंजन के लिए कभी कभी शृंगार रस वाली षट्ऋतु वर्णन, नायिका वर्णन आदि की रचनायें, तथा नीतिपरक एवं देवस्तुतिपरक पद्य भी समय-समय पर दरबारों में सुनाया करते होंगे। कुछ एक कवि अपने आश्रयदाता राजा के जीवन से संबद्ध किसी न किसी प्रबन्धकाव्य की रचना भी कर डालते होंगे; जिनमें समय-समय पर बनाये हुए अपने मुक्तक पद्यों की भी छौंक डाल देते थे। समय पर बनाये हुए अपने मुक्तक पद्यों की भी छौंक डाल देते थे । मैंने श्रीहर्ष के 'नैषध' के सम्बन्ध में लिखते समय इस बात का संकेत किया था कि उसमें ११-१२ वें सर्ग के पद्य राजस्तुतिपरक मुक्तक पद्य जान पड़ते हैं, जिन्हें कवि ने समय समय पर आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा में लिखा था और बाद में थोड़ा हेर-फेर कर उन्हें यहाँ जोड़ दिया है । यह प्रवृत्ति इस काल के संस्कृत तथा देशी भाषा (पुरानी हिन्दी) के कवियों में समान रूप से पाई
& There was a constant rivalry among these princes and each one of them wanted to win over
Kanauj, which was considered as a symbol of Imperialism in northern India. Even Rastrakutas of Manyakheta had run up to Kanauj and "the 'antarveda' had been resounded by the steps of their steads." Pals were also not inactive and they had their eagle's eye' over Kanauj.'
- मेरे अप्रकाशित ग्रंथ "Hindi Literature in Changing Phases" के द्वितीय परिच्छेद से उद्धृत । २. भोलाशंकर व्यास: संस्कृत-कवि दर्शन पृ० २०० ।
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