Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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१५२]
प्राकृतपैंगलम्
[२.१८०
चारी हारा भव्वाकारउ पाआ अंतहि सज्जीआए, .
सप्पाराआ सुद्धाकाअउ जंपे पिंगल मंजीरा ए ॥१८०॥ १८०. जहाँ प्रत्येक चरण में मस्तक पर (आरंभ में) तीन कुन्तीपुत्र (कर्ण, गुरुद्वय) दिये जायँ, फिर क्रमशः एक पाद (भगण), एक हार (गुरु), दो कंकण (गुरु), तथा गंध (लघु) का युगल (अर्थात् दो लघु) स्थापित कर, सुंदर (भव्याकार) चार हार (गुरु) चरण के अंत में सजाये जायें,-शुद्धकाय सर्पराज पिंगल ने इसे मंजीरा छंद कहा है।
(मंजीरा:-555555555505555=१८ वर्ण)
टि०-मंथा-मस्तके, मस्तकं 7 मत्थअं7 मत्थउ 7 मंथा; अनुस्वार अनुनासिक ध्वनि म के कारण है, यह पराश्रय अनुनासिकीकरण (डिपेंडेंट नेजेलाइजेशन) का उदाहरण है।
जुग्गालाए-< युगलं के अर्धतत्सम 'जुगल' का छन्दोनिर्वाहार्थ विकृत रूप । सज्जीआए-< सज्जिताः; सज्जिआ का छन्दोनिर्वाहार्थ विकृत रूप । 'ए' वाला अंश तुक के लिए पाया जाता है। सुद्धाकाअ< शुद्धकायकः; सुद्ध के अन्तिम अक्षर की स्वर ध्वनि का छंदोनिर्वाहार्थ दीर्धीकरण । जहा, गज्जे मेहा णीलाकारउ सद्दे मोरउ उच्चा रावा,
ठामा ठामा विज्जू रेहउ पिंगा देहउ किज्जे हारा । फुल्ला णीवा पीवे भम्मरु दक्खा मारुअ वीअंताए,
हहो हंजे काहा किज्जउ आओ पाउस कीलंताए ॥१८१॥ [मंजीरा] १८१. उदाहरण:
नीले मेघ गरज रहे हैं, मोर ऊँचे स्वर में शब्द कर रहे हैं, स्थान स्थान पर पीले देह वाली बिजली सुशोभित हो रही हैं, (मेघों के द्वारा बिजली का) हार (धारण) किया जा रहा है, कदंब फूल गये हैं, भौरे बोल रहे हैं, यह चतुर वायु चल रहा है, हे सखी, बता क्या करें, वर्षाऋतु क्रीडा करती आ गई है।
टि०-गज्जे-2 गर्जति । टीकाकारों ने इसे ब० व० माना है "मेघाः गर्जन्ति' या तो यहाँ 'जातौ एकवचनं' माना जा सकता है, अथवा 'मेहा' को ब० व० रूप मानने पर उसके साथ 'गज्जे' ए० व० क्रिया का प्रयोग वाक्यरचनात्मक विशेषता को द्योतित करता है। ध्यान देने की बात तो यह है कि इसका विशेषण ‘णीलाकारउ' भी ए० व० में ही है।
काहा-2 किं, किज्जे-< क्रियते (=किज्जइ 7 *किज्जे ) कर्मवाच्य रूप, किज्जउ < क्रियताम् (अथवा विधि का रूप) । कीलंताए-< कीडन कीलंत का छन्दोनिर्वाहार्थ विकृत रूप । कीडाचन्द्र (क्रीडाचक्र) छंदःज इंदासणा एक्क गण्णा सुहावेहि पाएहि पाए,
ज वण्णा दहा अट्ठ सोहे सुदंडा सुठाए सुठाए । दहा तिण्णि गुण्णा जहा सव्वला होइ मत्ता सुपाए,
फर्णिदा भणंता किलाचक्क छंदो णिबद्धाइ जाए ॥१८२॥ १८०. एक्का हारा दुज्जे-C. हारा हत्था दिज्जे, N. हारा हत्था दुण्णा । कंकणु-C. कण्णा । लाए-C. पाए. N.O. जाए। हारा-C. हारउ। सज्जीआए-C.संठीआए। सुद्धा-C. मुद्धा। १८०-C. १७६, N. २२७, ०.१८१ । १८१. णीलाकार-C. णीलाकाअउ (=नीलकायाः)। मोरङ-A. B.C. मोरा । उच्चा-A. उचा, 0. उठ्ठा । रेह-A. B. रेहइ । किज्जे-A. कीज्जे, C. किज्जउ। हारा0. हावा । पीवे-C. भम्मे, N. वोल्ले । भम्मरु-C. भमरा । हहो हंजे-K. हंजे हंजे। काहा-C. काहे । “कीलंताए-C. 'की अंता ए[=प्रावृट् आगता किं (वा) अन्तोऽयं], N. आरू पाउस कोलं ताए (=आगता प्रावृट् तावत्) । १८१-C. १७७, N. २२८, 0. १८२ । १८२. सुहावेहि-C. सुहावेइ, N. सु होवेइ । ज वण्णा दहा अट्ठसोहे सुदंडा-C. तण्णा......सोइ दंता सुठाए, N. दहा अट्ठवण्णा सुहावेइ दण्डा, O. तरंडा । सुदंडा-A. सूदंडा । सव्वला-A. B. संठआ। होइ-A. होति, B. होत्ति । सुपाए-B. सुठाए। किलाचक्क-B. विलाछक्क, N. किलाचन्द । छंदो-A. छंदा, B. चंदा । १८२-C. १७८, N. १२९ ।
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