Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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१.१९४] मात्रावृत्तम्
[९१ मीलिअ-यह वस्तुतः "मिलिअ' का ही छन्दोनिर्वाहार्थ विकृत रूप है, दे० मिलिअ-इसी पद्य की तीसरी पंक्ति ।
पीडिअ, बुज्झिआ-(बुज्झिअ =Vबुज्झ+इअ), मिलिअ, धाइउ (धाइओ 1 धाइउ अप० रूप), वड्डिअ (Vवड्ड + इअ) ये सभी कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत के रूप हैं।
कंप-2 कम्पन्ते (गिरिवरशिखराः कर्ता है), वर्तमानकालिक प्र० पु० ब० व० । उच्छलइ-Lउच्छलति, वर्तमान प्र० पु० ए० व० (हि० उछलना) । दीहरा-Lदीर्घः, रेफ तथा ह का वर्णविपर्यय, 'अ' का आगम; छन्दोनिर्वाहार्थ पदांत 'अ' का दीर्धीकरण । [अथ त्रिभंगी छंद]
पढमं दह रहणं अट्ठवि रहणं पुणु वसु रहणं रसरहणं,
__ अंते गुरु सोहइ महिअल मोहइ सिद्ध सराहइ वरतरुणं । जइ पलइ पओहर किमइ मणोहर हरइ कलेवर तासु कई,
तिब्भंगी छंदं सुक्खाणंदं भणइ फणिदो विमलमई ॥१९४॥ १९४. त्रिभंगी छन्दः
पहले दस मात्रा पर विश्राम (रहना-टिकना) हो, फिर आठ पर, फिर आठ पर, फिर छ: पर विश्राम हो; अंत में गुरु शोभित होता है, यह छन्द पृथ्वीतल को मोहित करता है, (तथा) सिद्ध तरुण वर (सहृदय) इसकी सराहना करते हैं। यदि इस छन्द में (कहीं) पयोधर (जगण) पड़े, तो क्या यह मनोहर होगा ? (अर्थात् यह सुन्दर नहीं होगा) । यह अपने कवि के शरीर को हर लेता है। विमलबुद्धि वाले फणींद्र ने त्रिभंगी छंद को सुख तथा आनन्द से युक्त कहा है।
टिप्पणी-रहणं-(Vरह+ण) (हि० रहना) । "तरुणं-छन्दोनिर्वाहार्थ अनुस्वार । कई, मई-दीर्धीकरण छन्दोनिर्वाहार्थ पाया जाता है ।
छंद. सुक्खाणंद-छन्दोनिर्वाहार्थ अनुस्वार । 'सुक्ख' में द्वित्व या तो छन्दोनिर्वाहार्थ माना जा सकता है, या 'दुक्ख' के मिथ्यासादृश्य के आधार पर । जहा, सिर किज्जिअ गंगं गोरि अधंगं हणिअअणंगं पुरदहणं,
किअफणिवइहारं तिहुअणसारं वंदिअछारं रिउमहणं । सुरसेविअचरणं मुणिगणसरणं भवभअहरणं सूलधरं,
साणंदिअवअणं सुंदरणअणं गिरिवरसअणं णमह हरं ॥१९५॥ [त्रिभंगी] १९५. उदाहरण
सिर पर गंगा को धारण करनेवाले, अर्धांग में पार्वती वाले, कामदेव को मारनेवाले, त्रिपुर के दाहक, फणिपति (सर्प) के हार वाले, त्रिभुवन के सार, भस्म धारण करने वाले, शत्रुओं का मथन करने वाले शिव को-देवताओं के द्वारा जिनके चरणों की सेवा की गई है, तथा जो मुनियों के शरण, त्रिशूलधारी प्रसन्नमुख वाले, सुन्दरनयन तथा गिरिवरशयन है-नमस्कार करो।
टिo-किज्जिअ-< कृता; कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत रूप ।
इस पद्य में प्रयुक्त समस्त अनुस्वारांत पद वैसे कर्म कारक ए० व० के रूप हैं, पर यह सब संस्कृत की गमक लाने का प्रयास है। १९४. अट्टवि-A.C. B.O. अट्ठइ । महिअल-B. तिहुवण, N. तिहुअण्ण । सिद्ध-A. B.C. सिद्ध, K. सिद्धि । हणइ-B. करइ, C. हरइ । तिब्भंगी-B. तिभंगी, C. K. तिभ्भंगी । सुक्खाणंद-B. जणआणंदं । १९५. अधंग-N. अद्धंगं । वंदिअ-N. वीदिअ । भव-C. N. O. भउ । मुणिगण-N. मुणिअण । सूलघरं-0. पूलघरं । साणंदिअ-B. अणंदिअ।
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