Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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२.२६]
वर्णवृत्तम्
[१०५
रमण गमण ।
कमण कमण ॥२६॥ [कमल] २६. उदाहरण:हे प्रिय (रमण), कहाँ जा रहे हो, कहाँ ? टि०-गमण-< गमनं ।
कमण-< कुत्र; क्या इसका संबंध कः पुनः > कउण > कवण से है, जिसके मध्यग 'V' को यहाँ 'म' के रूप में लिपीकृत किया गया है। कुछ टीकाकारों ने इसकी व्याख्या 'कीहक् कमनीयं' की है तथा अर्थ ऐसे किया है:-'इस सुंदरी की गति कितनी सुंदर है।' चतुरक्षर छन्द, तीर्णा छन्दः
चारी हारा अट्टा काला ।
बीए कण्णा जाणे तिण्णा ॥२७॥ २७. (जहाँ) चार हार (गुरु) हों, आठ कलायें (मात्रायें) हों, दो कर्ण (गुरुद्वयात्मक गण) हों, उसे तीर्णा जाने । (5555)
टिप्पणी-चारी < चत्वारि > चत्तारि > *चआरि > चारि । पदांत ह्रस्व 'इ' को छन्दोनिर्वाहार्थ दीर्घ किया गया है। 'चारि' के लिए दे० पिशेल $ ४३९ । पिशेल ने इसकी व्युत्पत्ति का क्रम ऐसे माना है :-चत्वारि, *चात्वारि, *चातारि, *चाआरि, चारि, (दे० ग्रामातीक पृ. ३१४) । इसका 'च्यारि' रूप प्रा० प० राज० में मिलता है (दे० टेसिटोरी 8८०)। हि० राज० गुज०-'चार' ।
काला < कलाः, यहाँ भी छन्दोनिर्वाहार्थ प्रथमाक्षर के 'अ' को दीर्घ बना दिया गया है।
जाणे-कुछ टीकाकारों ने इसे आज्ञा म० पु० ए० व० (जानीहि) का, कुछ ने ब० व० (जानीत) का रूप माना है। सम्भवतः यह प्र. पु० ए० व० का रूप है, जिसका ठीक यही रूप हिंदी में भी पाया जाता है (हि० जाने) । इसकी व्युत्पत्ति संस्कृत के अनुज्ञाबोधक लोट् लकार के तिङ् प्रत्यय से न होकर वर्तमानकालिक रूप से हुई है। 'जाणे' की व्युत्पत्ति ऐसे होगी:-जाणे < जाणइ (शौर० जाणादि) < जानाति । हिन्दी के अनुज्ञा या आज्ञार्थक प्रकार (इम्पेरेटिव मूड) के रूपो में केवल मध्यम पुरुष ए०व० के रूप ही संस्कृत (प्रा० भा० आ०) लोट् म० पु० ए० व० से विकसित हुए
कार (प्रेजेंट इंडिकेटिव) से विकसित हुए हैं । दे० डॉ० तिवारी : हिन्दी भाषा का उद्भव और विकास ३८२ ।
जाआ माआ पुत्तो धुत्तो।
इण्णे जाणी किज्जे जुत्तो ॥२८॥ [तीर्णा) २८. उदाहरण:-जाया माया (मायाविनी) है, पुत्र धूर्त है-ऐसा समझ कर उचित (कार्य) करना चाहिये। . टिप्पणी-इण्णे । एतत् । जाणी जाणिअ<*ज्ञाप्य (ज्ञात्वा), पूर्वकालिक कृदंत रूप ।
किज्जे-कर्मवाच्य रूप (क्रियताम्) । इसका विकास 'किज्जई' से हुआ है, जो भी प्रा० पैं० में मिलता है। दे० १-९७, १०५, १०७ । धारी छंदः
वण्ण चारि मुद्धि धारि ।
बिण्णि हार दो वि सार ॥२९॥ २९. हे मुग्धे, (जहाँ) चार वर्ण हों, दो हार (गुरु) हों, तथा दो शर (लघु) हों, (क्रम से एक गुरु के बाद एक २७. अटा काला-N. इा कारा. B. "कला। बीए-C. बिण्णे । २८. पुत्तो धुत्तो-C. N. O. पुत्ता धुत्ता । इण्णे-0. एण्णे। जुत्तो-N. O. जुत्ता । २९. वि-0. स। .
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