Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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१.९२]
मात्रावृत्तम्
[ ४५ रूप में 'न्हि' का प्रयोग हुआ है- 'गजराजें शब्द करु, बायसन्हि कोलाहल करु (२९ बी), जुवतिन्हि जलकेलि आरहु (३० ए), भमरन्हि पद्म त्यजल (३० बी) '। साथ ही वर्णरत्नाकर में इसके साथ संबंधबोधक 'क' परसर्ग का प्रयोग भी पाया जाता है । 'उल्कामुखन्हि - क उद्योत ( ६२ बी), खद्योतन्हि -क तरंग जुवतिन्हि -क उत्कंठा (३० बी) '। इस 'न्हि' का रूप आधु० मैथिली में अभी भी सुरक्षितं है, जहाँ सकर्मक क्रिया के कर्म के साथ इसका आदरार्थे (ओनरिफिक) प्रयोग पाया जाता है—‘देखल—थी—न्हि''उन्होनें ( या उसने आदरार्थक) उन्हें ( या उसे आदरार्थक) देखा" (दे० डॉ. चाटुर्ज्या : वर्णरत्नाकर की भूमिका $ २७) । इसीसे अवधी का 'न्हि', 'न्हि', 'नि' संबद्ध है, जिनका प्रयोग तुलसी में पाया जाता है: - 'निज निज मुखनि कही निज होनी' (मानस)। मैथिली की तरह अवधी में भी 'न्हि' के साथ संबंधवाचक परसर्ग का प्रयोग मिलता है । 'जनौं सभा देवतन्हि कै जूरी' (मानों देवताओं की सभा जुड़ी है) । डॉ. सक्सेना ने इसे (न्हि को ) स्त्रीलिंग रूप माना है, तथा शुद्ध रूप देवतन्ह माना है। वे बताते हैं कि यह 'न्हि' 'सभा' के लिंग के कारण स्त्रीलिंग हो गया है (दे० डॉ. सक्सेना $ १९०) । मेरी समझ में डॉ. चाटुर्ज्या की व्युत्पत्ति विशेष ठीक है कि 'न्हि' का विकास 'आनां (ण) + भिः (हि)' से हुआ है तथा इसके साथ कभी कभी संबंधबोधक परसर्ग का प्रयोग पाया जाता है, जिसका प्रमाण वर्णरत्नाकर के प्रयोग हैं। 'न्हि' करण ब० 'व० का ही चिह्न न होकर कर्मवाच्य कर्ता ब० व० का भी चिह्न है। इस तरह जायसी का ‘देवतन्हि' मूलतः कर्ता कारक ब० व० तिर्यक् रूप है, जिसके साथ 'कै' संबंध कारक जुड़ा है, उस पर 'सभा' के लिंग के प्रभाव का कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। हिंदी तक में ब०व० में 'के' के साथ तिर्यक् रूपों का प्रयोग पाया जाता है, जो मूलतः कर्ता ब०व० के ही रूप है, हि० 'देवताओं की सभा' । फर्क सिर्फ इतना है कि जायसी का तिर्यक् रूप 'देवतन्हि' मूलतः करण ब० वo से विकसित हुआ है, हिंदी का 'देवताओं' संबंध ब०व० 'देवतानाम्' से । कहना न होगा, हिंदी के ब०व० के तिर्यक् रूप प्रा० भा० आ० भाषा के षष्ठी बहुवचनांत के विकास हैं । यहाँ इस वात का संकेत भी कर दिया जाय कि यही 'न्हि' व्रजभाषा के विकारी रूपों में 'न' के रूप में विकसित पाया जाता है; 'सखि इन नैनन तें घन हारे' (सूर) ।
गुरुजुत्ते - उत्ते- 'युक्तः, < उक्तः । यहाँ कर्ता (कर्मवाच्य कर्म) कारक ए० व० में 'ए' विभक्ति पाई जाती है । महा०, शौ०, जैनमहा० तथा प० अप० में 'ए' कर्ताकारक (प्रथमा) ए० व० का. सुप् चिह्न नहीं है, किंतु मागधी, अर्धमा० में यह चिह्न पाया जाता है। (अर्धमागधी में भी यह रूप केवल गद्य भाग में ही मिलता है, पद्य भाग में वहाँ भी 'ओ' रूप, पुत्तो, देवो, पाये जाते हैं) । 'ए' सुप् चिह्न के लिए दे० पिशेल $ ३६३; 'पुत्ते' (तु० देवे) । प्रा० पैं० के इन रूपों का संबंध इसी म० भा० आ० कर्ता ए० व० 'ए' से जोड़ा जा सकता है ।
ऐग्गाराहा - प्राकृत-अप० में एआरह - 'एग्गारह'
का संकेत हम कर चुके हैं, दे० $ ७८ । इसी परवर्ती 'एग्गारह' का अव० रूप 'एग्गाराहा' है, जहाँ छंद की सुविधा के लिए परवर्ती दोनों अक्षरों (रह) के स्वरों को दीर्घ बना दिया है। छंदो-संस्कृत में ‘छंदस्' शब्द नपुंसक लिंग है। अप० तथा अव० में नपुंसक का प्रयोग प्रायः लुप्त ही माना
जा सकता है, क्योंकि नपुं० के केवल ब०व० रूप मिलते हैं, वे भी लगभग एक दर्जन ही हैं । यहाँ यह पुल्लिंग के रूप में परिवर्तित हो गया है | यहाँ 'ओ' चिह्न को गज० व्रज० का पूर्वरूप मानना विशेष ठीक होगा । छंद > छंदउ > छंदो के क्रम से भी प्रा० हि० छंदो रूप बन सकता है 1
जुज्जइ - युज्यते । √जु+ज्ज (कर्मवाच्य - भाववाच्य) + इ ।
ऐक्के ऐक्के-'क' का द्वित्व । 'ए' कर्ताकारक ए० व० माग०, अर्धमा० सुप् विभक्ति । दे० ऊपर का गुरुजुत्ते, उत्ते । अण्णा अण्णो- 'ओ' कर्ता ए० व० प्राकृत सुप् विभक्ति ।
जहा
पअरु दरमरु धरणि तरणिरह धुल्लिअ झंपिअ, कमठपिट्ठ टरपरिअ मेरु मंदर सिर कंपिअ । कोई चलिअ हम्मीरवीर गअजूह संजुत्ते, किअउ कट्ठ हाकंद मुच्छि, मेच्छहके पुत्ते ॥९२॥ [रोला ]
९२. पअभरु - A. D. N. पअभर। दरमरु - A. दरमरि, B. मरिदउ, C. दरुमरु, D. मरदिअ। रह-0. धअ । धुल्लिअ - B. धलिअ, C. O. धूलिहि, D. घुल्लिअ। पिट्ठ-C. O. पीठ । टरपरिअ - C. दरमलिअ, D. टरिपरिअ । कोहB कोहें, C. कोहे, D. कोहि, K. कोह, N. कोहें। हम्मीर - C. K. हमीर, O. हंवीर गअजूह - O. गअजुह ।। सैंजुत्ते - B. D. सुजुत्ते, C. K. O संजुत्ते । किअ A. किएउ । किअउ कट्ट -0. कट्टे किअउ । मेच्छहके - A. B. मेछहुके, D. मेछहिके। पुत्ते - O. पूते । ९२ -C. ९५ ।
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