Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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१.१८०] मात्रावृत्तम्
[८५ (दण्डकल में प्रत्येक चरण में ३२ मात्रा होती हैं, कुल छन्द में ३२४४=१२८ मात्रा, प्रत्येक चरण के अन्त में गुरु होता है।)
टिप्पणी-जाणह-जानीत, अनुज्ञा म० पु० ब० व० ।
सऊ< शतं, [सअ (म०), सय (अर्धमा०), सद (शौ०), शद (माग०) दे० पिशेल $ ४४८] | 'सउ' अपभ्रंश रूप है-शतं > सअ> सउ । (हि० सौ, राज० सो)-'पिंगल बोलावा दिया सोहड़ सो असवार' (ढोला मारू दोहा ५९७)।
भासिअ-< भाषितं (रूपं का विशेषण) कर्मवाच्य भूतकालिक कृदन्त रूप । जंपंत-< जल्पन् (अस्ति) वर्तमानकालिक क्रिया के लिए वर्तमानकालिक कृदन्त का प्रयोग । मणे-< मनसि, संस्कृत 'मनस्' का म० भा० आ० में अजंत रूप हो जाता है । यह अधिकरण ए० व० का
जहा, राअह भग्गंता दिअ लग्गंता परिहरि हअ गअ घर घरिणी,
लोरहिँ भरु सरवरु पअ परु परिकरु लोट्टइ पिट्टइ तणु धरणी । पुणु उट्ठइ संभलि कर दंतंगुलि बाल तणअ कर जमल करे,
कासीसर राआ णेहलु काआ करु माआ पुणु थप्पि धरे ॥१८०॥ [दंडकल] १८०. उदाहरण
अपने हाथी, घोड़े, घर और पत्नी को छोड़कर राजा लोग भगकर दिशाओं में लग गये हैं। उनके आँसुओ से सरोवर भर गये हैं। उनकी स्त्रियाँ पैरों पर गिर गिर कर पृथ्वी पर लोट रही हैं तथा अपना शरीर पीट रही हैं। फिर सँभल कर हाथ की अंगुलि को दाँत में लेकर, अपने छोटे पुत्र से (प्रणामार्थ) हाथ की अंजलि बँधा रही है । स्नेहशील काशीश्वर राजा ने दया (माया) करके (उन राजाओं को) फिर से (राज्य में) स्थापित कर दिया ।
टिप्पणी-राअह-< राजानः; 'ह' अप० में कर्ताकारक ब० व० में भी पाया जाता हैं, वैसे मूलतः यह सम्बन्ध कारक ए० व० का सुप् प्रत्यय है।
भग्गंता, लग्गंता-वर्तमानकालिक कृदंत के ब० व० रूप ।
दिअ-< दिक् > दिअ (=दिशासुः दिक्षु) यह अधिकरण के अर्थ में है, जहाँ शुद्ध प्रातिपदिक का प्रयोग पाया जाता है।
परिहरि-< परिहत्य > परिहरिअ > परिहरि, पूर्वकालिक रूप । लारहि-'हिँ' करण कारक ब० व० का प्रत्यय । 'लोर' (अश्रु) देशी शब्द है । भरु-< भृताः (भृतः), परु < पतितः ये दोनों कर्मवाच्य भूतकालिक कृदन्त के रूप हैं : दे० भूमिका । लोट्टइ-< लुटति (हि० लोटना, राज० लोटबो) । पिट्टइ-(ताडयति) Vपिट्ट देशी धातु है । (हि० पीटना, रा० पीटबो) । उद्यइ-< उत्तिष्ठति ।
संभलि कस्-अधिकांश टीकाकारों ने' 'कर' का सम्बन्ध 'दत्तंगुलि' के साथ जोड़ कर 'कृतदत्तांगुलि' अर्थ किया है । दो टीकाकारों ने 'कर' को 'कृत्वा' का रूप माना है। क्या 'संभलि कर' संस्कृत 'संभाल्य कृत्वा' का रूप तो नहीं है ? यदि ऐसा हो तो इसे हि० 'सँभल कर' या 'सँभल के' का पूर्वरूप माना जा सकता है, जहाँ पूर्वकालिक क्रियारूपों में किसी भी क्रिया के साथ 'कर' या 'के' का प्रयोग भी पाया जाता है, जो स्वयं भी पूर्वकालिक क्रियारूप है।
हलुकाया-< स्नेहलकायः । १८०. भग्गंता-A. भग्गंजा । दिअ-C. K. O. दिग । लोरहिँ-B. लोरभि, C. रोलह, K. लोरहि, N. लोरहि, 0. णोरहि । सरवरु-0. सरअरु । पअ परु परिकरु-N. रुअइ अरु अवरु । पुणु-A. पुणि, B. पुण । “दंतंगुलि -N. दत्तगुलि । तणअN. तनय । जमल-C. जवल, ०. कमल । कासीसर-A. कासीसरु । करु-N. कर । णेहलु-C. णेह ।
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