Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम्
[ १.१५४
दिज्जहु - विधि, म० पु० ब० व० 'इज्ज' (ज्ज) विधि (ओप्टेटिव) का चिह्न है । (हि० आदरार्थे अनुज्ञा प्रयोग 'दीजिये') ।
७४]
छक्कलु मुह संठावि कइ चक्कलु पंच ठवेहु | अंतहि एक्कड़ हार दइ दोअइ छंद कहेहु ॥ १५४॥
१५४. मुख में (सर्वप्रथम ) षट्कल की स्थापना कर पाँच चतुष्कलों की स्थापना करो। अंत में एक गुरु देकर उसे द्विपदी छंद कहो ।
टि० - संठावि कइ - संस्थाप्य कृत्वा हिंदी में पूर्वकालिक क्रिया रूपों में धातु (स्टेम) के साथ 'कर', 'के' का प्रयोग होता है । इसका बीज इस प्रयोग में देखा जा सकता है। 'संठावि कइ' की तुलना हि० 'ठहरा के' से की जा सकती है। इस प्रकार का प्रयोग जहाँ एक साथ दो पूर्वकालिक क्रिया रूप पाये जाते हैं, अपभ्रंश में नहीं मिलता, केवल एक स्थान पर संदेशरासक में भी ऐसा प्रयोग देखा गया है; जिसे भायाणी जी ने संयुक्त पूर्वकालिक रूप कहा है- 'दहेवि करि' (१०८ ब), दे० संदेश० भूमिका § ६८ ।
जहा,
दाणव देव बे वि दुक्कंतउ गिरिवर सिहर कंपिओ
अगअपाअघाअ उट्टंतउ धूलिहि गअण झंपिओ ॥ १५५ ॥ [ दोअइ = द्विपदी ] १५५. द्विपदी का उदाहरण :
दानव तथा देवता दोनों एक दूसरे से भिड़े, (सुमेरु) पर्वत का शिखर काँपने लगा, घोड़े तथा हाथियों के पैरों के आघात से उठी धूल से आकाश ढँक गया ।
टि० - दाणव देव-कर्ता कारक ब० व० ।
ढुक्कंत - Vढुक्क + अंत; वर्तमानकालिक कृदंत + उ, कर्ता कारक ।
कंपिओ - कंपितः कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत का क्रिया के रूप में प्रयोग ।
'घाअ - घातेन; करण ए० व० में प्रातिपदिक का निर्विभक्तिक प्रयोग ।
उट्टंतउ-/ उट्ठ+ अंत+उ; वर्तमानकालिक कृदंत रूप ।
धूलिहि-- धूलिभिः; करण ब० व० ।
झंपिओ - / झंप+इअ (कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत ) + ओ ।
[ अथ झुल्लण - झूलना-छंदः]
पढम दह दिज्जिआ पुण वि तह किज्जिआ, पुण वि दह सत्त तह विरइ जाआ । एम परि बि बिहु दल, मत्त सततीस पल, एहु कहु झुल्लणा णाअराआ ॥ १५६ ॥ १५६. झूलना छंदः
पहले दस मात्रा दो, फिर भी वैसा ही करो, (अर्थात् फिर दस मात्रा दो) फिर दस और सात (सत्रह) पर विराम (यति) दो । (अर्थात् जहाँ प्रत्येक दल में -अर्धाली में - १०, १०, १७ पर यति हो) । इस परिपाटी से दोनों दलों में सैंतीस मात्राएँ पड़ें। इसे नागराज झुल्लणा छंद कहते हैं ।
टि० - दह - दश; ('श' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' के परिवर्तन के लिए दे० पिशेल 8 २६२, साथ ही 8
४४२) ।
दिज्जिआ, किज्जिआ - कुछ टीकाकारों ने इन्हें कर्मवाच्य क्रिया रूप 'दीयते', 'क्रियते' माना है। अन्य टीकाकर इन्हें भूतकालिक कृदंत 'दत्ताः', 'कृताः' से अनूदित करते हैं। तीसरा टीकाकार 'दिज्जिआ' को 'दत्त्वा' तथा 'किज्जिआ' १५४. कइ–O. कहु | ठवेहु-N. करेहु । एक्कइ हार दड़ - C. एक णरिंद देइ । एक्कड़-0. एक्कलु । दोअई - N. दोवइच्छंद । कहेहु -C. करेहु । १५५. दाणव-0. दाणउ । देव -0. देउ । ढुक्कंत - C. ठुक्कन्तउ । उट्टंतउ - C. उठ्ठन्तउ । झंपिओ - B. ओपिओ । १५६. C. प्रतौ झुल्लंणच्छंदसः लक्षणोदाहरणे न प्राप्येते । C. प्रतौ केनापि अन्येन परवर्तिकाले एतत्पद्यद्वयं लिखितं दृश्यते । मत्तN. सत्तं । कह-N. कहु । १५६. O. न प्राप्येते ।
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