Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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१.१६०]
मात्रावृत्तम्
[७७
१५९. दोनों दलों में नौ विप्रगण (सर्वलघु चतुष्कल) तथा अन्त में जोहल (रगण) स्थापित करो, इस प्रकार खंजा छंद में एक चरण में इकतालीस मात्रा तथा दस गण समझो ।
टिप्पणी-इआलिस-< एकचत्वारिंशत् । पिशेल ने प्राकृत ग्रामर में ४१ का केवल यही रूप दिया है, वह भी प्रा० पैं. के इसी पद्य से दे० पिशेल ६४४५ पृ. ३१६ । महाराष्ट्री, अर्धमागधी या अन्य प्राकृतों में इसके क्या रूप थे इसका कोई संकेत वहाँ नहीं हैं । संभवतः इसका विकासक्रम यह रहा होगा ।
*एकचत्तालीसं*-ऍक्कत्तालीसं > *इकतालीसं > इकतालीस (राज.)। एकचत्वारिंशत्
1 *एअअत्तालीसं-*एअआलीसं>*इआलीसं>इआलिस (प्रा० पैं० वाला रूप) ।
जहा,
अहि ललइ महि चलइ गिरि खसइ हर खलइ,
ससि घुमइ अमिअ वमइ मुअल जिवि उट्ठए । पुणु धसइ पुणु खसइ पुणु ललइ पुणु घुमइ,
पुणु वमइ जिविअ विविह परि समर दिट्ठए ॥१६०॥ [खंजा] १६०. खंजा छंद का उदाहरण:कोई कवि युद्ध का वर्णन कर रहा है;
(युद्धभूमि में योद्धाओं के पदाघात के कारण) शेषनाग डोलने लगता है, (जिससे) पृथ्वी काँपने लगती है, (कैलास) खिसकने लगता है, (कैलास पर्वत पर स्थित) महादेव गिर पड़ते हैं (स्खलित होते हैं), (उनके स्खलित होने से सिर पर स्थित) चन्द्रमा घूमने लगता है, (फलतः चन्द्रमा का) अमृत ढुलकता है (वमन करता है); (इस अमृत को पाकर युद्धस्थल में) मरे योद्धा पुनर्जीवित होकर उठ जाते हैं । (उनके जीवित होकर पुनः युद्ध करने से) फिर (पृथ्वी) धंसने लगती है, फिर पर्वत खिसकने लगता है, फिर (शिव) हिल पड़ते हैं, फिर (चन्द्रमा) घूमता है, और फिर (अमृत) वमन करता है । इस प्रकार बार बार जीवित होते नाना प्रकार के (योद्धा) समर में देखे जाते हैं ।
टि०-ललइ, चलइ, खसइ, खलइ, घुमइ, वमइ, धसइ-ये सब वर्तमानकाल प्र० पु० ए० व० के रूप हैं।
मुअल-< मृताः; भाववाच्य (कर्मवाच्य) भूतकालिक कृदन्त में 'ल' प्रत्यय पूर्वी हिंदी-मैथिली की विशेषता है। वस्तुतः यहाँ संस्कृत 'त+अल्' प्रत्यय का प्रयोग पाया जाता है, मृत+अल > मुअल । 'अल' वाले रूप खास तौर पर मैथिली में पाये जाते हैं तथा वहाँ भूतकालिक क्रिया के रूप में भी प्रयुक्त होते हैं। दे० वर्णरत्नाकर ६ ४९, ६ ५२। इसके कर्मवाच्य भूतकालिक रूप तु० 'भमर पुष्पोद्देशे चलल (वर्णरत्नाकर २९ ब), 'पिउल' (दे० डॉ. झाः विद्यापति (भूमिका) पृ. १६७) । 'ल' वाले कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत भोजपुरी में भी मिलते हैं-जहाँ इसके 'इल' रूप मिलते हैं । तु० खाइल, सुनाइल्, पिटाइल्, मराइल (दे० डॉ. तिवारी: भोजपुरी भाषा और साहित्य ६ ६२५) ।
जिविअ, जिवि-< *जीव्य > जीविअ > जीवि; इसी 'जीविअ-जीवि' का छन्दोनिर्वाह के कारण 'जिविअ' 'जिवि' बना दिया गया है।
उट्ठए-< उत्थिताः, दिट्ठए < दृष्टाः, 'ए' कर्ताकारक ब० व० । [अथ सिखा–शिखा-छंद]. , ससिवअणि गअगमणि पअ पअ दिअ छगण पअहर सह सिक्ख ।
पढ पढम बि बिह लहु पअलि दिअगण सहिअ जुअल दल भणइ स सिक्ख ॥१६१॥ १६०. अहि-C. 0. महि । महि-C. O. अहि । चलइ-0. पलइ । खसइ-B. रपल, C. O. चलइ, N. पलइ । मुअल0. भल। जिवि-A.O. जिविअ । उलए-N. वुठ्ठए, O. उठ्ठए । धसइ-N. तलइ । खसइ-N. खलइ । घुमइ-0. चलइ । जिविअA. जीविअ, B. विजिअ । समस्-C. रण । १६०-C. १५८. । १६१. छगण-A. गण छ, C. अठ्ठ गण । सह-B. N. स, 0. हस । सिक्ख-N. सिख । बि बिह लहु-N. लहु विविह 1 सहिअ-A. सहिअ, B. लहिज, C. K. सहिउ, N. अहिअ । जुअल
N. जअल । सिक्ख-N. सिख । Jain Education International
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