________________
८२
-Luilyhummarrrrrrravel
muraamanar
* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुपपादा यहाँ पर भाव-कर्म में हु प्रादि धातुओं के अन्तिम वर्ण को 'ईर यह प्रादेश करके क्या प्रत्यय का लोप किया गया है।
१२२-वृतिकार फरमाते हैं कि यहां "अन्त्यवर्ण के स्थान में" इस अनुवृत्ति की निवृत्ति हो जाती है । १८३ सूत्र से अन्त्यस्य इस पद की अनुवृत्ति ग्रहण की जा रही थी, किन्तु अब प्रागे उसकी निवृत्ति समझनी चाहिए । अजि धातु के स्थान मैं '
विप यह मादेश विकल्प से होता है, और उसकी प्रयस्थिति में क्य प्रत्यय का लोप हो जाता है। जैसे ----अज्यतेविडप्पड़, आदेश के अभावपक्ष मेंविविज्जइ, अज्जिज्जइ (उससे पैदा किया जाता है) ऐसे रूप बनते हैं।
२३-कर्मभाव में ज्ञा धातु के स्थान में णव और णज्ज ये दो मादेश विकल्प से होते हैं, इन के संनियोग में क्य-प्रत्यय का लोप हो जाता है। जैसे --शायते-णध्वइ, पज्जइ धादेश के प्रभावपक्ष में-जाणिजह, मुगिजर, ३१३ सूत्र द्वारा के स्थान में 'ए' यह प्रादेश हो जाने पर-नाबाद (उस से जाना जाता है) यह रूप बनता है। यदि ज्ञा धातु से पूर्व नत्र का प्रयोग हो तो न शायतेमा भगाइजइ (उस से जाना नहीं जाता है। यह रूप हो जाता है।
२४-- फर्मभाव में वि और प्राङ् (प्रा) उपसर्ग पूर्वक हु धातु के स्थान में पाहिप यह मादेश विकल्प से होता है और इसका संनियोग होने पर क्य-प्रत्यय का लोप हो जाता है। जैसे-व्याहिमते वाहिप्पइ, मादेश के अभाव में बाहर से कहा जाता है) यह रूप बनता है। .. २५-कर्मभाव में प्राव (मा) उपसर्ग पूर्वक रभि धातु के स्थान में 'आप' यह प्रादेश विकल्प से होता है और उसका सामीप्य होने पर क्य-प्रत्यय का लोप होता है। जैसे-भारम्यते माडप्पा, मादेश के प्रभावपक्ष में--प्रादवीमद (उस से प्रारम्भ किया जाता है। ऐसा रूप रूप बनता है।
१२६-कर्मभाव में स्निह, और सिच् इन धातुधों के स्थान में सिप्प'यह मादेश होता है और इसका संनियोग होने पर क्यप्रत्यय का लोप हो जाता है । जैसे - १ स्निह्यते-सिप्पा(उस से स्नेह किया जाता है), २-सिध्यते-सिप्पा (उस से सींचा जाता है), यहां पर कर्म भाव में स्तिह, पौर सिन् धन धातुओं को सिप्प यह आदेश किया गया है ।..
९२७-कर्मभाव में ग्रह, धातु के स्थान में 'प' यह मादेशः विकल्प से होता है और स्फ प्रत्यय का लोप हो जाता है । जैसे-गाते-घेप्पइ मादेश के प्रभावपक्ष में-गिरि (उस से पहण किया जाता है) यह रूप बनता है। . . ९२५-कर्मभाव में स्पृशिधातु के स्थान में शिष्य यह प्रादेश विकल्प से किया जाता है, और क्य-प्रत्यय का लोप होता है। जैसे---स्पृश्यते-छिप्पद प्रादेश के प्रभावपक्ष में-छिविमा (उससे स्पर्श किया जाता है। ऐसा रूप होता है।
* अथ निपाल-प्रकरणम् + ... ...... १२६-तेनाफुण्णादयः ।।४।२५८ । अप्फुण्णादयः शब्दा प्राक्रमि-प्रभृतीना पातूचां स्थाने क्तेन सह वा निपात्यन्ते । अप्फुण्णो,आक्रान्तः । उक्कोसं, उत्कृष्टम् । फुड,स्पष्टम् । बोलीणो, प्रतिक्रान्तः । योसट्टो, विकसितः । निमुद्रो, निपातितः। लुग्गो, रुग्णः । हिक्को, मष्टः । पम्हुढो,प्रमृष्टः प्रमुषितो वा । विढतं, अजितम् । छित्त,स्पृष्टम् । निमि, स्थापितम् । परिस, भास्वाचितम् । लुमं, लूनम् । अवं, स्पक्तम् । झोसिभ, शिसम् । निक, उत्तम् ।