Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Hemchandrasuri Acharya
Publisher: Atmaram Jain Model School

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Page 391
________________ هه ل ده ف مهيهيهيه عينه علید می گردم حه ميه ميه ميه ميه ميه هو يعي هه یه یه ئه م همه ی - عه مه تامیه یه یه یه مه یه معصومه ميه ميه دي، مع و عمومی و مه به حج ३७४ * प्राकृत-व्याकरणम् * चतुर्थप्रादा अर्थात- वलयाबलि [कंकणावलि-कंगनों की श्रेणी] को गिरने के भय से नायिका ऊंची भुजा करके चल रही है, मातो वह बल्लभ [प्रीतम के विरह-[वियोग]-रूप महा-हद [महान तालाब के अन्तस्तल की गवेषणा कर रही हो । यहां पर पठित 'इव' इस पद के अर्थ में 'माई' इस शब्द का प्रा. ...देश किया गया है। नासा का उदाहरण इस प्रकार है -- प्रेक्ष्य मुखं जिनवरस्य बोधनयतं सलावण्यम् । इव गुहार-मरिसंबल प्रविशति समम् ।३।। : पति--जिनवर के विशाल नेत्रों वाले और लावण्य [सौन्दर्य] से युक्त मुख को देख कर अत्यन्त ईवी से भरा हुआ लवण लावण्य-सौन्दर्य ] मानों अग्नि में प्रवेश कर रहा है। यहां पर पठित 'इव' इस अव्ययपद के अर्थ में भाषा इस शब्द का प्रादेश किया गया है। परिण इस अध्ययपद का उदाहरण इस प्रकार है---- चम्पक-कुसुममध्ये सखि! भ्रमरः प्रविष्टः। शोभते इन्द्र-नील इव कनके उपविष्टः ।।४।। अति-हे सखि ! चम्पलता के पुष्प के मध्य में भ्रमर प्रविष्ट क्या हो गया, मानों इन्द्रनील मणि कृष्पर वर्ण वाली मरकत मणि, पन्ना] कनक स्वर्ण] के ऊपर शोभा पा रही है। यहां पर पठित 'इव' इस पद के अर्थ में 'जणि' इस पद का प्रादेश किया गया है ! जणु का उदाहरण इस प्रकार है-मिश्षम-रसं प्रियेण पीत्वेव-निरुवम-रसु पिएं पीएवि जण मानों अनुपम रस पीकर प्रीतम ने] यहाँ पर पठित 'इव' पद के अर्थ में अशु' इस शब्द का मादेश किया गया है। * अथ लिङ्ग-प्रकरणम् * १११६-लिङ्गमतन्त्रम् । ८।४। ४४५ ! अपभ्रशे लिङ्गमतन्त्र व्यभिचारि प्रायो भवति । गय-कुम्भई दारन्तु [४,३४५] । प्रत्र पुल्लिङ्गस्य नपुसकत्वम् । प्रउमा लग्गा डुङ्गरिहिं पहिउ रडन्तउ जाइ। जो एहो गिरि-गिलण-मणु सो किंधणहें धणाई?॥१॥ प्रत्र 'प्रभा' इति नपुसकस्य पुस्त्वम् । पाइ विलग्गी अन्त्रडी सिरु ल्हसिउं खन्धस्सु । तो वि कटारइ हत्था बलि किज्जः कन्तस्सु ॥२॥ अत्र 'अन्नडी' इति नपुसकस्य स्त्रीत्वम् । सिरि चडिमा खन्ति फलई पुणु डालई मोडन्ति । तो वि महबुदुम सउणाहं प्रवराहिउ न करन्ति ॥३॥ अत्र 'डालई' इत्यत्र स्त्रीलिङ्गस्य नपुसकत्वम् । * अथ लिनक्ररणन् * लिङ्गत्वं प्राकृत-गुण-गतावस्थात्मको धर्म एव भवति । तद्विशेषश्च पु-नपुसक

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