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चतुषपादा ...
पपेक्या टोकासीत प्रचलित-गिरायां ससरला, . . . प्रमासोऽयं सस्मावत इति विजानन्तु सुधियः ॥३॥
* चतुर्पः पारः सम्पूर्णः * कथामा-मादा यो रमान होने वाली विधि *
प्राकृत और शौरसेनो प्रादि षड्विध भाषाओं का विधि-विधान हैमशब्दानुशासन नामक व्याकरण के अष्टमाध्याय के १११८ सूत्रों में निरूपित किया गया है। प्राकृत प्रादि समस्त भाषाओं के कुछ एक नियम ऐसे भी हैं जो उक्त १११८ सूत्रों में वर्णित नहीं किए जा सके हैं। प्रतः उन नियमों को हैमशब्दानुशासन के सप्ताध्यायोरूप संस्कृत-व्याकरण से ग्रहण कर लेना चाहिए। प्रस्तुत प्रकरण में इसी बात का वर्णन किया जा रहा है। .. १११-इस मष्टम अध्याय में १- प्राकृत, २-शौरसेनी, ३-मागधी. ४-पेशाची, ५प्रतिकार्यशाची.मौर ६-अपनश इन ६ भाषाओं के जो नियम नही बताए गए हैं, वे सप्ताध्यायी में दिए गए संस्कृत-भाषा के नियमों के समान ही जानने चाहिए। हमशम्यानुशासन व्याकरण के आठ अध्याय हैं। पहले के सात अध्यायों में संस्कृत भाषा के विधि-विधान का वर्णन किया गया है और माठवें अध्याय में प्राकृत प्रादि यह भाषामों का निरूपण कर रखा है। सूत्रकार फरमाते हैं कि प्रस्तुत मोटसाध्याय में प्राकृत मावि भाषामों का जो विधिविधान नहीं कहा गया,वह सब पहले सात प्रध्यायों में वर्णित संस्कृत-भाषा की भांति ही सिद्ध है । अर्थात् उसी के समान समझ लेना चाहिए । बसे--
प्रवास्पित-सूर-निवारणाय, छत्रं पधः इव वहन्ती ।
बपति सवा दराह-श्वास-शेरिक्षप्ता पृषिको । १॥ अर्थात् वराह के श्वास द्वारा दूर तक ऊपर को उठाई गई तथा शेष नाग से युक्त पृथ्वी भानों अधःस्थित सूर्य के प्रातप का निवारण करने के लिये छत्र का रूप धारण कर रही है । ऐसी पृथ्वी की विजय हो । पौराणिक मान्यता है कि हिरव्या राक्षस ने समस्त ब्रह्माण्ड को उलटा दिया था। ब्रह्माण्ड को उलटा देने पर सूर्य देव भूतल के नीचे आ गए । प्रधःस्थित सूर्य के भयंकर परिताप को सहन न कर सकने के कारण पाताल-निबासी जनजीवन को सूर्य जन्य परिप से सुरक्षित करने के लिये भगवान विष्णु ने वराह [सयर का अवतार धारण किया । तदनन्तर बराल रूप धारी भगवान ने अपने प्रबल उच्छवासों से ब्रह्माण्ड को सीधा किया। ब्रह्माण्ड के अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाने पर पटवी ने पाताल-निवासियों को छत्र की भांति सूर्यजन्य परिताप से सुरक्षित कर दिया। यहां पर पठित अध:-स्थित वर-निवारणायम्- हेट-ट्ठिय-सूर-निवारणाय नीचे विद्यमान सूर्य को रोकने के लिए] इस पद के निवारणाय इस शब्द में चतुर्थी विभक्सि का प्रयोग किया गया है, परन्तु प्राकृत प्रादि भाषामा में चतूथी विभक्ति के प्रत्यय के स्थान में किसी प्रकार के पादेश का विधान नहीं किया गया है। प्रतःसूत्रकार फरमाते हैं कि प्राकृत प्रादि भाषामों में जिस नियम का विधान नहीं किया गया, वह विधान संस्कृत भाषा के समान ही प्राकृतादि भाषा में ग्रहण कर लेना चाहिये । फलतः चतुर्थी-विभक्ति में प्रत्यय के स्थान में संस्कृत व्याकरण से यकार का प्रादेश करके निवारणाय यह रूप बनता है। इस तरह सस्कृतभाषा के नियम का प्राकृत पाद भाषाओं में भी पाश्रषण कर लिया जाता है।