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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोका-पूथोपेतम् * इसके अतिरिक्त, प्राकृत प्रादि भाषाओं में जिस शब्द का विधिविधान बताया जा चुका है, उसी शब्द का संस्कृत-व्याकरण के आधार पर संस्कृत-भाषा में जो विधिविधान बतलाया गया है, कहीं-कहीं पर सस्कृत भाषा के उस विधिविधान को भी प्राकृत भाषा में ग्रहण कर लिया जाता है। जैसे...रसाद के सप्तमी के एक बचन में प्राकत-भाषा में सौर उरमिछाती में ये दो रूप बनते हैं, और संस्कृत भाषा में इस शब्द का उरसि यह रूप होता है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि प्राकृत भाषा में भी कहीं-कहीं पर संस्कृत-भाषा-निष्पन्न 'उसि' इस रूप का प्राश्रयण कर लिया जाता है। इसी प्रकार शिरस शब्द के मनमी के एक वचन में जहां सिरे,सिरम्मि इन रूपों के प्रयोग प्राकृत प्रादि भाषाओं में चलते हैं, वहीं संस्कृत भाषा-निष्पन्न सिरखिसिर में इस रूप का भी प्राकृतादि भाषाओं में उपयोग होता है। शिस शब्द को भांति सरस शब्द के सरे,सरम्मि और सरस [तालाब में] इन तीनों रूपों का भी प्राकन आदि भाषाओं में उपयोग कर लिया जाता है। भात यह है कि प्राकृत श्रादि भाषाओं में, प्राकृत प्रादि भाषाओं के नियमों से निष्पन्न शब्दों का तो प्रयोग होता ही है किन्तु कहीं-कहीं पर संस्कृत-भाषा-निष्पन्न शब्दों का भी प्रयोग हो जाता है।
प्रस्तुत सूत्र में पठिन 'सिजुम्" यह शब्द मङ्गल-सूचक है। मंगल का अर्थ है-१-जिस से हित की प्राप्ति हो, जो आत्मा को जन्म-मरण रूप संसार से अलग करताहो,३-जिस से पास्मा शोभायमाम हो, ४-जिस से आम तथा हर्ष की उपलब्धि होती हो, समा ५-द्विारा भात्मा विश्वयूज्य, लोकवन्ध तथा लोकप्रिय बन जाता हो। मंगल से प्रत्येता. विद्यार्थी] और प्रध्यापक [पढाने वाला] सब दीर्घायु होते हैं और अभ्युदय [उन्नति, वृद्धि] को प्राप्त करते हैं........
इस तरह प्राचार्य श्री हेमचन्द्र जी महाराज द्वारा अपनी उपज्ञा स्वयं प्राप्त बोध] से विरचित हैम-शब्दानुशासन की 'सिद्ध-हेमस' नामक वृत्ति [व्याख्या में मटमाध्याय का चतुर्थ पाद पूर्ण होता है। अर्थात प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित हैमशम्दानुशासम नामक च्याकरण के अष्टनाध्याय [प्राकृत-व्याकरण] को प्रकाशिका नाम वाली वृत्ति [व्याख्या] समाप्त होती है। मूल मन्य में प्राकृतव्याकरण के चतुर्थ पाव तथा उस की प्रकाशिका ब्याख्या के समाप्त हो जाने पर इस पर लिखी हमारी आत्मगण-प्रकाशिका" हिन्दी-टीका भी समाप्त हो रही है।
मुनिवर आत्माराम हैं, गुन मेरे भगवान। धर्मविवाकर संयमी, पावन ज्ञान-निधाम ॥१॥ गुरुवारनों को होग, हिल्ली में यूनिभान । सुर्य पाद का है हुआ. परिपूरक व्याल्यानाशा * चतुर्थपाद का विवरण समाप्त *
* अथ ग्रन्थकृत्-प्रशस्ति:* प्रासीद्विशा पतिरमुद्रचतुःसमुद्र
. मुद्रातिकत-क्षितिभर-क्षम-बाहुदण्डः । ...:. :: श्रीमूलराज इति खुर्धर-बैरि-कुम्भि - ...:. . . . . . . ....
कन्ठीरवः शुचि-पुण्य गुलावतंसा ॥१. . .