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१९२ * प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थंपादः १०२४-अपभ्रंशभाषा में, नपुंसकलिङ्ग में विद्यमान नाम-प्रातिपदिक से परे पाए जस और शाम इन प्रत्ययों के स्थान में हाई] यह आदेश होता है । ई के स्थान पर ऐसा पाठान्तर भी मिलता है । अतः आदेश के दोनों प्रकार यथास्थान ग्रहण किये जा सकते हैं। जैसे
..: ... : कमलानि मुक्त्वा अलिकुलानि करिगण्डान कक्षन्ते ।। ... सुलभमेष्टु येषां निबंध से नाऽपि दूरं गायन्ति ।।१।।
अर्थात--अलिकुल (भ्रमर-समूह) कमलों को छोड़कर सुगन्धि के लिए हाथियों के गण्डस्थलों को चाहते हैं । वास्तव में जिनका प्राग्रह असुलभ-दुर्लभ पदार्थों को प्राप्त करने का होता है, वे दूरी की परवाह नहीं किया करते, किसी पदार्थ को अलभ्य नहीं मानते । ..::: यहां पर १-कमलामि कमलइ (कमलों को),२-अलिकुलाहि अलि-उलई (भ्रमर-समूह), ३-करिगपडान करिमण्डाई (हाथियों के गण्डस्थलों को इन शब्दों में शस् और अस के स्थान में लथा। यह प्रादेश किया गया है। .......१०२५-- अपनंशभाषा में नपुसकलिङ्ग में विश्वमान ककारान्त (जिस के अन्त में ककार हो) नाम-प्रसिपमा कारगार है वो सिौरान इस प्रत्ययों के परे रहते 'उ' यह आदेश होता है। सि-प्रत्यय का उदाहरण, जैसे-प्रन्यद् यद् तुच्छकं तत्त्याः धन्यस्याः =अन्नु जु तुच्छउँ तहे धणहे (उस नायिका का जो और तुच्छ है) यहां पर ...तुच्छत', इस पद में सिप्रत्यय परे होने पर प्रस्तुत सूत्र से प्रकार को यह आदेश किया गया है । अम्-प्रत्यय का बाहरण---
भग्नकं दृष्टा निजक-बलं बलं प्रसृतकं परस्य ।
उन्मीलति शशि-रेखा यया करे करालः प्रियस्थ ।।१।। ... अर्थात- अपनी सेना को भान हतोत्साह) हुई देखकर तथा शत्रु की सेना को बढ़ी हुई निहार कर मेरे प्रीतम के हाथ में सलवार शशि-रेखा (चन्द्र की किरण) के समान चमक रही है। .: यहां पर भग्नकम भगउँ (नष्ट हुई को), २-प्रसतकमा पसरिनउँ (बढी हुई को इन शब्दों में अम्-प्रत्यय परे रहने पर प्रकार को 'ई' यह आदेश किया गया है। .: : . . . * अथ सर्वादिशब्दाना विधिः *
१०२६-सर्वावेसेहाँ । ८ । ४ । ३५५ । अपभ्रशे सर्वादेरकारान्तात् परस्य असेहीं इत्यादेशों भवति । जहां होन्तउ पागदो। तहाँ होन्तउ प्रागदो। कहां होन्त उ प्रागदो। .......१०२७-किमो डिहे या ।। ४ । ३५६ । अपम्रशे किमोऽकारान्तात्परस्य डसेडिहे इत्यादेशो वा भवति। ....... :: .. जा तहे तुट्टउ नेहडा मइँ सहुँ न वि तिल-तार!।
तं कि बके हि लोनणेंहिँ जोइज्जउँ सय-बार ॥१॥ ...१०२८-देहि ।।४१३५७१. अपभ्रशे सर्वादरकारान्तात्परस्य : सप्तम्येकवचनस्य हिं इत्यादेशो भवति । .. . जहि कपिज्जइ सरिण सरु छिज्जा खम्गिण खग्गु ।
तर्हि तेहइ मह-घड-निवहि कन्तु पयासइ मग्गु ।।१।।