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२६८ * प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादा एक्कहिं, अश्विहिं इन पदों में संयुक्त ककार को गकार तथा संयुक्त रखकार को धकार न हो, इसलिए सूत्रकार ने 'असंयुक्तानाम् यह पद पढ़ा है । इस के प्रतिरिक्त-प्रस्तुत सूत्र में प्रायः [आमतौर पर इस पद का १००० वें सूत्र से अधिकार पा रहा है। "प्रायः" यह शब्द प्रस्तुत में बहुलाक का बोधक है। प्रतः कहीं-कहीं पर प्रस्तुत सूत्र की प्रवृत्ति नहीं भी होती । जैसे
यदि कथित् प्राप्स्यामि प्रियमकृतं कौतुकं करिष्यामि।
पानीयं नवके शरावे यथा सर्वाङ्गेण प्रवक्ष्यामि 11४1! अर्थात--दि किसी तरह अपने प्रिय को प्राप्त कर तो अकृत[जो किया न हो] कौतुक [तमाशा] करू गी । नवीन प्याले में पानी की भांति सर्व प्रक्षों से प्रवेश करू गो। भाव यह है कि नूतन प्याले के कण-कण में जैसे जल समा जाता है, वैसे मैं भी अपना सर्वस्व प्रीतम के चरणों में निछावर कर दूंगी।
" यहां पर प्रकृतम् प्रकिया [जो किया न हो] इस पद में कार को गकारादेश होना था, परन्तु बहुलाधिकार के कारण नहीं हो पाया।
पश्य कणिकार: प्रफुल्लितकः काञ्चन-कान्ति-प्रकाशः।
गौरी-यवन-विनिजितक: इव सेवते बनवासम् ।।५।। अर्थात-स्वर्ण की कान्ति के समान प्रकाश वाले और फले हुए कनेर के फूल को देख. मानों गौरी [सुन्दरी] के सुन्दर मुख से पराजित हो कर यह वनवास का सेवन कर रहा है।
यहां पर---प्रफुल्लितकः- पफुल्लिम विकसित Jइस पद में प्रस्तुत सूत्र से फकार के स्थान में भकार,तकार के स्थान में बकार और कार के स्थान में गकार का प्रादेश होना था,परन्तु बहुलाधिकार के कारण वह नहीं हो सका ।
१०६.-अपभ्रंश-भाषा में अनादि में वर्तमान तथा प्रसंयुक्त मकार के स्थान में विकल्प से सानुनासिक (अनुनासिक वाले) कार का प्रादेश होता है। जैसे-----कमलम् = कवलु, कमलु (कमल), २-प्रमरः भवंरु, भमरु (भंवरा) यहां मकार के स्थान में सानुनासिक वकार का विकल्प से आदेश किया गया है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि लाक्षणिक अर्थात् लक्षण- सूत्र से निष्पन्न मकार को भी सानुनासिक वकार का प्रादेश हो जाता है। जैसे-१-यथा-जिम-जिव (जैसे), २-तथातिम तिव (वैसे),३---मथा- जेम-जेवं (जैसे),४-तथा-तेम-तेवे (वैसे) यहां पर लाक्षणिक मकार को सानुनासिक दकारादेश किया गया है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि अनादिभूत मकार को ही सानुनासिक बकारादेश होता है, आदिभूत को नहीं । जैसे -- भवन:- मयणु (कामदेव)यहां मकार नादिभूत था, अतः इसे सानुनासिक वकारादेश नहीं हो सका। इसके अलावा-~मकार यदि असंयुक्त हो तो ही इसे उक्त आदेश होता है, अन्यथा नहीं । जैसे- तस्य पर सफल जन्मतसुपर सभलउ जम्मु (उस का जन्म बड़ा सफल है) यहां पर संयुक्त होने से मकार के स्थान में सानुनासिक बकारादेश नहीं हो सका।
१०६६. अपभ्रश-भाषा में संयोग से अधो-वर्तमान (संयुक्त वर्ण में दूसरा वर्ण) रेफ का विकल्प से लोप होता है। जैसे-यदि कथंचित् प्राप्स्यामि प्रियम् - जइ के इ पाबीसु पिउ (यदि किसी तरह प्रिय को प्राप्त करलू) यहां पर-प्रियम्-पिउ (प्रीतम को) इस पद में अघोवर्तमान रेफ का विकल्प से लोप किया गया है। लोप के प्रभावपक्ष में-यवि भन्मा परकीयाः, ततः सखि मम प्रिये
जइ भग्गा पारक्कडा, तो सहि ! मझु प्रियेण (हे सखि ! यदि शत्रुषों को भगाया है, तो मेरे प्रीतम