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चतुर्थपादः
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* प्राकृत व्याकरणम् * अर्थात् -हे प्रिय ! जीवन चञ्चल है, अस्थिर है, और मृत्यु ध्रुव-निश्चित है. अतः तू क्यों रुष्ट हो रहा है । रोषयुक्त व्यक्ति के थोडे दिन भी सैकडों दिध्य [स्वर्गीय ] वर्षों के समान हो जाएंगे। भाव यह है कि दुःखी जन को कुछ दिन भी सैकड़ों वर्षों तुल्य प्रतीत होते हैं। यहां पर 'ध्रुवम्' इस पद के स्थान पर 'ध्र' यह आदेश किया गया है। 'मा' के स्थान में किए गए 'म' इस आदेश का उदाहरण .. मा धन्धे ! कुछ विधानम्मं धणि ! करहि विसाउ [हे सुन्दरि! विषाद मत कर] यहां पर 'सा' को 'म" यह आदेश किया गया है। प्रस्तुत भूत्र में १००० वें सूत्र से प्रायः [बहुल] इस पद की अनुवृत्ति पाने से कहीं पर 'मा' के स्थान में 'म' यह आदेश नहीं भी होता । जैसे
माने प्रसष्टे यति न तनु, सदा देशं श्यज ।
___मा दुर्जन-कर-पल्लवेः वयं मानः भ्राम्य ||४|| अर्थात-स्वाभिमान के नष्ट हो जाने पर यदि शरीर नहीं तो देश को अवश्य छोड देना चा. हिए, क्योंकि दुर्जनों से कर-पल्लवों [कर रूपी पल्लव-कोंपल] द्वारा दिखाए जाते हुए व्यक्ति का भ्रम करना सर्वथा अनुचित है। यहां पर 'मा' इस पद के स्थान में मं यह आदेश नहीं हो सका।
लबणं बिलीयते पानोयन धरे ! खलमेघ मा गर्म!।
बालितं गलति सरकटोरकं गौरी तिम्यति ॥५॥ अर्थात--अरे दुष्ट मेघ ! तू आज गरजना मत कर, क्योंकि पानी से लवण-लावण्य [सौन्दर्य] विलीन (नष्ट) हो रहा है और जलाया हुमा कुटीर गल रहा है तथा गौरी [सुन्दरी] वासना अन्य अन्तवेंदना से पीडित हो रही है। यहां पर भी 'मा' इस अव्ययपद के स्थान में 'म' यह आदेश नहीं हो सका । मनाक के स्थान में किए गए 'ममा' इस आवेश का जवाहपण
विनवे प्रष्टे बकः द्विभिः जन-सामान्यः ।
किमपि मनाक् मम प्रियस्य शशी अनुहरति नान्यः ॥६॥ ___अर्थात-वैभव के नष्ट हो जाने पर मेरा प्रीतम वक्र और ऋद्धि के होने पर जनसामान्य की भाँति चलता है। अर्थात् वक्रता से रहित हो जाता है। मेरे प्रिय की इस स्थिति का चन्द्रमा ही कुछकुछ अनुकरण करता है, अन्य कोई नहीं । यहां पर 'मनाक' इस अव्ययपद के स्थान में 'मरणायह मादेश किया गया है।
१०९. भापभ्रशभाषा में ----किल, २----अथवा, ३ - विधा, ४-~सह और ५--नहि इन शब्दों के स्थान में क्रमशः १-किर, २-महदइ, ३-हिये, ४-सहूं और ५-माहिं ये मादेश होते हैं। किल के स्थान में किए गए 'किर' का उदाहरण----
किल खादति, म पिवति, न विनवति, धर्म म पयति रूप्यम् ।
इह कृपणो न जानाति यथा यमस्य धारणेन प्रभवति दूतः ॥१॥ अर्थात-निश्चय ही कृपण व्यक्ति न तो कुछ खाता है, न पीता है, न धर्म में ही रुपया दान करता है, और नाही [अन्य किसी कार्य में] व्यय करता है, क्योंकि वह नहीं जानता कि यम का दूत क्षणभर में अपना प्रभुत्व जमा लेगा। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति किसी भी क्षण मृत्यु के मुंह में आ सकता है, तथापि वह अपना हानिलाभ सोचने का यत्म नहीं करता। यहां पर 'किस' के स्थान में "किर' यह प्रादेश किया गया है। अथा के स्थान में किए गए 'महबई' इस आदेश का उदाहरणअथवा म सुशानामेष बोध-प्रवदन सुवंसह एह खोडि [अथवा अच्छे वंश वालों का यह दोष नहीं
ATARISM