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३६८ * प्राकृत ध्याकरणम् *
चतुर्थपाद! प्रस्तुत सूत्र भो क्त्वा के स्थान में ही एप्पि प्रादि चार आदेशों का विधान करता है, इस तरह ये पाठ मादेश पस्या के स्थान में किए गए हैं, इन आदेशों का एक ही सूत्र से विधान किया जा सकता था, फिर सूत्रकार ने दो सूत्र बना कर ग्रन्थ-गौरब क्यों किया ? उत्तर में निवेदन है कि क्त्वा-प्रत्यय को विहित पाठ आदेशों का निर्देश एक ही सूत्र द्वारा हो सकता था, यह सत्य है किन्तु इस सूत्र का जो योग रचना किया गया है.यह वह केवल उत्तर प्रगले सत्र के निमित्त किया गया है. १११२वो सूत्र तुम् प्रत्यय के स्थान में १-एवं, २-अण, ३-अणहं, ४ अरणह, ५---एप्पि, ६-एप्पिा , ७-एवि और एविशु, इन माठ प्रादेशों का विधान करता है। इन पाठ प्रादेशों में से एप्पि, एपिणु, एवि और एक्णुि इन चार आदेशों की अनुवृत्ति ११११ वें सूत्र से ग्रहण की गई है। यदि क्त्वा के स्थान में होने वाले इ, उ, इवि, अवि तथा एप्पि, एप्पिा , एधि और एविणु इन सभी पाठ मादेशों को एक ही सूत्र में संकलित कर लेते तो १११२३ सुत्र में इन सभी प्राठों आदेशों की अनुवृत्ति हो जाती, परन्तु १११२ वें सूत्र को क्वास्थानीय समस्त प्रादेशों का ग्रहण करना इष्ट नहीं है, उसे तो केवल एपि, एप्यिणु, एघि और एविए ये चार प्रादेश ही अपेक्षित हैं। अतएव सूत्रकार ने १११० तथा ११११ इन सूत्रों का पृथक् योग [निर्माण किया है। इस पृथक् योग से १११० वें सूत्र में पठित , इल, इथि और अदि इन चार प्रादेशों की अनुवृत्ति की १११२ सूत्र में निवृत्ति हो जाती है :
१११२---अपभ्रंश-भाषा में तुम्-प्रत्यय के स्थान में, १-~-एवं. २-प्रण, और ३-अणहं, ४अहि ये चार तथा सूत्रोक्त पकार के कारण १-एपि, २ एप्पिणु, ३-एवि-और ४-एवियु ये बार, इस तरह समस्त आठ प्रादेश होते हैं । जैसे
धातु दुष्करं निजकपन, कानुन तप: प्रतिभाति ।
एवमेव सुखं भोक्तु मनः, परं भोक्तुम याति ॥१॥ प्रति---अपने धन का दान करना कठिन है, तथा तप करना भी अच्छा नहीं लगता है। ऐसे ही [दान और तप के बिना ही] यह मन सुख का उपभोग करना चाहता है, किन्तु इस तरह ऐसे सूख का उपभोग कैसे हो सकता है। यहां पर पठित-१ बातम-देवं [देने को] इस पद में तुम्-प्रत्यय को एवं, २-कर्तुम् करण [करने को] इस पद में तुम्-प्रत्यय को अरा, ३-भोक्तुमभुजणहूँ | भोगने को] इस पद में तुम्-प्रत्यय को अगह और ४ -- भोक्तम्- भुजहिं [भोगने को] इस पद में तम्-प्रत्यय के स्थान में अहिं यह आदेश किया है। एक ही श्लोक में वृत्तिकार ने उक्त चारों भादेशों का निर्देश करने की कृपालुता की है।
जेत त्यस्तु सकलां धरा लात तपः पालयितुम् ।
बिना शान्त्या तीर्थेश्वरेण कः शक्नोति भ्रवनेऽपि ॥ अर्थात्-सम्पूर्ण पृथ्वी को पहले तो जीतमा, फिर उस का परित्याग करना, फिर तप का प्रहण करना और फिर उस की परिपालना करना, त्रिभुवन[तीन लोक ] में ये सब बातें तीर्थकर श्री शान्ति नाथ के बिना और कौन कर सकता है ? यहां पर-पठित-१--जेतुम् = जेप्पि[जीतने को] इस पद में तुम्-प्रत्यय के स्थान में एप्पि, २ मक्तुम् एप्पिणु [छोडन को] इस पद में तुम् प्रत्यय के स्थान में एपिण, ३-लातुम् -- लेविणु [लाने को, धारण करने को] इस पद में तुम्-प्रत्यय के स्थान में एपिख भौर ४-पालयितुम् = पालेवि [पालन करने को] इस पद में तुम्-प्रत्यय को एवि यह