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Ratin-animun
चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोका-द्वयोपेतम् * प्रादेश किया गया है। यहां पर भी वृत्तिकार ने तम्-प्रत्यय के स्थान में होने वाले एप्पि आदि चारों पादेशों का एक ही श्लोक में उल्लेख कर दिया है।
१११३---अपभ्रंश-भाषा में गम्ल [गम् ] धातु से परे प्राए एप्पिा और एप्पि इन प्रादेशों के एकार का विकल्प से लोप हो जाता है।
गत्वा चारागस्या नराः अथ उज्जयिन्यां गत्वा ।
मसाः प्राप्नुवन्ति परमपदं दियाऽन्तराणि मा कथय |१| प्रर्थात-बाराणमी अथवा उज्जयनी में जा कर मरने वाले व्यक्ति परमपद को प्राप्त कर लेते हैं, प्रतः अन्य तीर्थों को चर्चा मत कर । अर्था: अन्य तीर्थों में जाने की आवश्यकता नहीं। यहां पर पठित १-गत्वा । गम्ल-गम् + क्त्वा = गम् + एप्पिणु = गम् - प्पिणु = गम्प्पिणु [जा कर]. इस पद में 'एप्पिणु' के एकार का विकल्प से लोग किया गया है।२-मस्या । गम्ल-गम् +क्त्वा गम्+एप्पिगम् +प्पि-गम्पि [जाकर ] इसमें 'एप्पि' के एकार का विकल्प से लोप किया गया है। लोप के अभावपक्ष में एपिणु तथा एप्पि के एकार का लोप नहीं होता । जैसे--
- गङ्गा गत्वा यः म्रियते यः शिवतीर्थ गत्वा ।
कीपति त्रिवशावासगतः स यमलोक जित्वा ।।२।। अर्थात् ....गङ्गा अथवा शिव-तीर्थ पर आ कर जो मरता है. यह यमलोक को जीत बार स्वर्गीय प्रावासों को प्राप्त करके सानन्द उन में क्रीडाएं करता है । यहां पर पठित गत्वा । गम्ल-गम् + क्त्वा -गम् + एप्पिणु-गप्पिणु [जाकर] इस पद में एप्पिशु के एकार का लोप नहीं हो सका। तथागत्वाई गम्ल-गम्+क्या गम् + एपिगमेप्पि [जा कर] और जित्वा । जि+क्त्वा-जिण+ एपि-जिरोपि [जीत कर] इन पदों में 'एप्पि' के एकार का लोप नहीं किया गया ।
१९१४-अपभ्रश-भाषा में तृन्-प्रत्यथ के स्थान में प्रणा यह आदेश होता है। जैसे--- हस्ती मारपिता, लोकः कथयिता, परहः वादयिता, शुनकः भषिता-हस्थि मारणउ, लोउ बोलणउ, पडह वज्जाउ, सूजाउ भसणउ [हाथी मारने की वृत्ति वाला होता है, लोक-प्राणिवर्ग बोलने का. स्वभाव रखता है. पटहढोल] का स्वभाव बजना और कृतं का स्वभाव भी कना होता है। यहां पर पठित १-मारथिला मारणउ [मारने के स्वभाव वाला], २~-कथयिता-बोल्लणउ [बोलने के स्वभाव वाला], ३. वायिता बनाउ [बजने के स्वभाव वाला], ४-भषिता भसणउ भौंकने के स्व. भान वा] इन समस्त पदों में हनु-प्रत्यय के स्थान में 'अप' यह आदेश किया गया है।
* अथ वार्धाऽऽदेश-विधिः .१११५-इवाऽर्थे नं-जउ-नाइ-नावइ-मणि-अणवः। ८।४ । ४४४ । अपभ्रशे इकशब्दस्याऽर्थे नं, न उ, नाइ, नावइ जरिण, जणु इत्येते षड् श्रादेशा भवन्ति । नं । नं मल्लजुज् ससि-राह करहिं [४,३८२] नउ ।
रवि-अस्थमणि समाउलेण कण्ठि विइष्णु म छिन्नु ।
चक्के खण्ड मुणालिमहे नउ जीवग्गल विष्णु ॥१॥ नाइ
वलयावलि-निवडण-मएण घण उवम्भुन जाइ । बल्लह-विरह-महावहहो थाह गवेसइ नाइ ॥२॥