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★ संस्कृत-हिन्दी- टीकाद्वयोपेतम् ★
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horss पट्ट [नि कानों में प्रवृष्ट हुई ] यहां पर स्त्री-लिङ्गी शब्द न होने से कर कृष्णड + कि, इस पद प्रकार को इकारादेश नहीं हो सका। कण्ण शब्द की प्रक्रिया इस प्रकार है -कर। कर्ण + ङि । यहां पर ३५० सूत्र से रेफतोप ३६० वें सूत्र से णकारद्वित्व, ११०१ सूत्र से डम[s] - प्रत्यय होता है । तत्पश्चात् डित्-प्रत्यय परवर्ती होने से मन्त्यस्वरादि वर्ण [णकारगत अकार ] का लोप, अज्झौन व्यजन में स्वर का संगम तथा १००५ वें सूत्र से डिप्रत्यय के साथ प्रकार की इकारादेश हो जाने पर कण्णबह यह रूप सिद्ध होता है। वैसे कण्डम + डि यहां पर प्रकार से
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परे श्राकार प्रत्यय का अभाव होने से प्रस्तुत सूत्र की प्राप्ति ही नहीं है । तथापि वृत्तिकार ने इस उदाहरण का क्यों उल्लेख किया है ? यह विचारकों को विचार करना चाहिए ।
११०५ - प्रपत्र - भाषा में युष्मद् भादि शब्दों से परे प्राए ईय-प्रत्यय के स्थान में बार (भार) यह आदेश होता है। जैसे
सम्वेशेन fr greatयेन यत्संगध्य न मिल्यते ? ।
स्वाऽन्तरे पीतेन पानीयेन, प्रिय ! पिपासा कि छिते ||१||
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अर्थात् है प्रिय पतिदेव ! तुम्हारे सन्देश से क्या लाभ ? क्योंकि तुम संगमार्थ तो कभी मि लते ही नहीं हो । भला स्वप्न में किए जाने वाले जल पान से क्या पिपासा [प्यास ] शान्त हो सकती है ? यहां पर पठित युष्मोयेन तुहारेण [तुम्हारे ] इस पद में युष्मद-शब्द सम्बन्धी 'ई' - प्रत्यय के स्थान 'डार' यह प्रादेश किया गया है। २ पर अस्मदीयं कान्तम् दिक्वि श्रम्हारा कन्तु [हमारे कान्त [प्रिय ] को देखो ] यहां पर पठित-अस्मदीयम् श्रम्हारा [हमारे] इस पद में अस्मद्-शब्द के ई-प्रत्यय के स्थान में 'बार' यह आदेश किया गया है। ३-भगिनि ! अस्मदीयः कान्तः बहिणि ! म हारा कन्तु [बहिन ! हमारा कान्त प्रीतम ] यहां पर पठित अस्मदीयः महारा [ हमारा ] इस पद में मदद के प्रत्यय को 'डार' यह प्रादेश किया गया है।
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त्यंथ
११०६-- अपभ्रंश भाषा में इवम्, क्रिम्, यद्, तद् और एतद् इन पांच शब्दों से प्राए अतु-प्रस्थान में डेल [ एतुल] यह आदेश होता है। जैसे -१ इयान् = एतुलो [ इतना ], २किमान केलो [कितना ] ३ यावान् जेतुलो [जितना ] ४ - सामान्तेत्तुलो [ उतना ], ५– एतावान् = एतुली [ इतना ] यहां पर पठित १ - इदम् + ऋतुएतुलो, २ किम् + ऋतु = केतुलो, ३ - यष् + डाव = जेतुलो, ४- तद् + डातु-तेत्तुलो, श्रीर ४- एतद् + डावतु = एतुलो इन पदों में
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प्रत्यय के स्थान में प्रस्तुतसूत्र से डेल प्रादेश किया गया है। प्रत्यय-प्रहले तदन्तस्याऽपि ग्रहणम् [प्रत्यय का ग्रहण करने पर, वह प्रत्यय जिस के अन्त में हो उस प्रत्यय का भी ग्रहण कर लिया जाता है] इस परिभाषा के प्राधार पर अतु-प्रत्यय कहने से डाव इस प्रत्यय का भी ग्रहण कर लिया जाता है। इसी लिए पादान, तावान् तथा एतावान् इन शब्दों के डावतु प्रत्यय को भी प्रस्तुत सूत्र से खेल ल यह आदेश किया गया है ।
११०७ - प्रपत्र श- भाषा में सर्व प्रादि शब्दों से सप्तम्यन्त अर्थ में विहित त्र प्रत्यय के स्थान में उत्त [एस] यह श्रादेश होता है । जैसे—
अत्र तत्र द्वारे गृहे लक्ष्मीः विसंष्ठुला धावति ।
प्रिय प्रनष्टेव गौरी निश्चला कस्मिन्नपि न तिष्ठति ||१||
अर्थात - विसंष्ठुल चंचल लक्ष्मी यहां, वहां द्वारों और घरों में भ्रमण करतो रहती है। जसे