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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादः अर्थात् - वे विशाल नेत्र, वह भुज-युगल [भुजामों का जोड़ा], वह धन-स्तन-भार [धन-कसे हुए, स्तनों का भार-बोझ], वह मुख-कमल और वह केश कलाप [बालों का ढेर] अन्ध है, अर्थात् असाधारण [विलक्षण] ही है। यहां तक कि वह विधि [भाग्य] भी अन्य [पोर] ही है जिस ने कि गुणों और लादण्य की निषिस्वरूप उस नितम्बिनी [बड़े और सुन्दर नितम्बों वाली स्त्री] की रचना की है। यहां पर 'प्रायः' इस अश्ययपद के स्थान में 'प्राउ' यह आदेश किया गया है । 'प्राइव' प्रादेश का उदाहरण--
प्रायो मुनीनामपि भ्रान्तिः, तेन मणिकान् गणयन्ति ।
अक्षये, निरामये परमपदे, अधाऽपि लयं न लभन्ते ||२|| अर्थात्-मुनिजनों को भी प्रायः भ्रान्ति बनी हुई है, इसी लिए वे माला के मणिकों [मनकों] को गिनते हैं, अर्थात् मालाएं फेरते हैं। इन मुनियों ने अभी तक अक्षय और निरामय [रोग-रहित] परमपद में लीनता को प्राप्त नहीं किया। यहां पर 'प्रायः' इस पद के स्थान में 'प्राइव' यह प्रादेश किया गया है । 'प्रारम्ब' का उदाहरण---
अनुजलेन प्रायः गोयाः सखि! पत्त मयनसरसी।
से सम्मुखे सम्प्रेषिते दत्तः तिर्यग् घातं परम् ॥३॥ ___ अर्यात्-हे सखि ! गौरी के नयन-रूप सरोवर यद्यपि अश्रुजल से उद्वत्त हैं, अर्थात् उछल रहे हैं, फिर भी वे किसी कामुक व्यक्ति के सन्मुख प्रेषित किए गए तिर्यक [टेढा] एवं दिलक्षण धात कर डालते हैं। अकथनीय दुःख पहुंचाते हैं । भाव यह है कि पति-विरह-जन्य दुःख से व्याकुल सुन्दरी अश्रु पूर्ण नयनों से भी यदि किसी कामी व्यक्ति को निहारती है तब भी उसके विकार-पूर्ण नयन उस कामुक व्यक्ति को परिव्यथित कर देते हैं । इसके विपरीत, यदि वह सुन्दरी प्रसन्न नयनों द्वारा किसी कामुक व्यक्ति को देख ले तब तो उस व्यक्ति को दुर्दशा का कहना ही क्या है ? यहां पर प्रायः इस अव्ययपद के स्थान में प्रस्तुतसूत्र से प्राइम यह प्रादेश किया गया है। परिगद का उदाहरण
एण्यति प्रियः रोषिष्यामि, अहं कष्टा मामनुनयति ।
प्रायः एतान् मनोरथान दुष्करान् पयिता करोति ॥४॥ प्रर्थात---प्रीतम जायगा, मैं रुष्ट हो जाऊंगी, रुष्ट हुई मुझ को वह मनायगा, इस प्रकार के दुष्कर [जिन का पूर्ण होना कठिन हो] मनोरथों को प्राय: दयिता [नायक की प्रिय नायिका ही किया करती है। यहाँ पर 'प्रायः' इस अव्ययपद के स्थान में परिगम्ब' यह प्रादेश किया गया है।
१०८६--अपभ्रंश भाषा में 'अन्यथा' इस अश्ययपद के स्थान में अनु' यह आदेश विकल्प से किया जाता है। जैसे ---
विरहाऊनल-ज्वाला-कालितः पयिकः कोऽपि माक्वा स्थितः।
अन्यया शिशिरकाले शीतलजलाए घूमः कृतः उत्थितः ॥१॥ अर्थात्-प्रतीत होता है कि विरहाऽग्नि की ज्वालाओं से दग्ध कोई पथिक डुबकी लगाए हुए जल में स्थित है, यदि ऐसा न होता तो शिशिर काल [माध और फाल्गुण मास] में शीतल जल से धूप्रो कैसे निकलता ? यहां पर अन्यथा इस अव्ययपद के स्थान में अनु' यह प्रादेश विकल्प से किया गया है। आदेश के अभावपक्ष में अन्यथा अन्नह [नहीं तो] यह रूप बनता है।
१०५७--अपनश-भाषा में "फतः" इस अव्ययपद के स्थान में कर और कहन्तिह ये दो