Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Hemchandrasuri Acharya
Publisher: Atmaram Jain Model School

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Page 379
________________ imminiAIMIMITHowwwwwwwwwimirmisarta अनुकंपादः पकारस्य स्थाने सकारे, प्रस्तुत-सूत्रेण तुन्प्रत्ययस्य स्थाने अणार इत्यादेशे, १० स० स्वरस्य लोपे, भ झीने परेण संयोज्ये, १००२ सु. अकारस्य उकारे, १०१५ सू० सेपि भसाड इति भवति । मारयितामारण उ, कविता कोल्लणउ, चावयिता- वज्जण, भषिता भसणउ इत्यत्र प्रस्तुतसूत्रेणतृन्-प्रत्ययस्थ स्थाने अणम इत्यादेशो जातः। * अथ प्रत्ययों से सम्बन्धित विधि* वह अक्षर या शब्द जो किसी धातु या शब्द के अन्त में संज्ञापद या क्रियापद आदि पदों के बनाने के लिए जोड़ा जाता है, उस को प्रत्यय कहते हैं । अपभ्रंशभाषा में प्रत्ययों से सम्बन्धित जो विधिविधान पाया जाता है, अब उस का निरूपण किया जा रहा है १६-अपभ्रंश भाषा में पुनर और बिना इन दोनों अन्यप्रपदों से प्रागे 'ड[उ]' यह प्रत्यय होता है। जैसे- स्मयते तद पल्लमक, यद् विस्मयते मनाए । यस्मिन पुनः स्मरणं जातं, पतं तस्य स्नेहस्य कि नाम ॥१॥ मर्थात जो प्रिय वस्तु होती है, उसी का स्मरण किया जाता है, जो कभी विस्मृत हो जाए, बह प्रिय वस्त नहीं होती? विस्मत कर देने के अनन्तर जिसका स्मरण किया जाए उस वस्तु के स्नेह का कोई मूल्य नहीं है। प्रति वास्तविक स्नेह वही है जो सदा स्मरण रहे। यहां पर पठित 'पुनर्' इस अव्ययपद से []' प्रत्यय करके 'पुणु यह रूप बनाया गया है। बिना का उदाहरण इस प्रकार है-बिना मुझेन न बलामहे - विगु जुज्झ न बलाहुं युद्ध के बिना नहीं लौटते हैं] । यहां पर पठित विना' इस अध्ययपद से '[3] यह प्रत्यय करके विणु' यह रूप बनाया गया है। १०९८-अपभ्रंश-भाषा में 'अवश्यम्' इस शब्द से आगे [ए] पोर - [भ] ये दो प्रत्यय किए जाते हैं। जैसे मिश्रियं मायकं कशे कुक्त यस्य अधीनानि अन्यानि । मूले विनम्टे तुम्हिन्याः प्रवनय शुरुकारिण पनि ॥१॥ अर्यात-जिस व्यक्ति के रसनेन्द्रिय अधीन होती है, उसके अन्य सब इन्द्रियां अधीन हो जाती है। अतः सब इन्द्रियों के नायक (प्रधान] जिहन्द्रिय रसना को वश में करो। जैसे-तुम्बिनी [तुम्बी] के मूल का नाश हो जाने पर उसके पत्र अवश्य ही सूख जाते हैं, ऐसे ही रसनेन्द्रिय' के वश हो जाने पर शेष इन्द्रिय वश में प्रा जाती हैं। यहां पर प्रस्तुत सूत्र से अवश्यम् प्रवसे इस पद से [८] यह प्रत्यय किया गया है। -प्रत्यय का उदाहरण इस प्रकार है-अवश्यं न स्वपन्ति सुखासिकायाम्-- बसन सुमहिं सुहच्छिमहि [अवश्य ही के सुखशय्या पर नहीं सोते हैं] यहां पर पठित अवश्यम्-प्रबस इस पद से [अ] यह प्रत्यय किया गया है। . १0६-अपभ्रंश-भाषा में एकशः इस शब्द से परे स्वार्थ में जि-प्रत्यय होता है। जैसे एकशः शोल-कलङ्कितामा बीयन्ते प्रायश्चित्तानि। यः पुनः खण्यति अमुविवसं तस्य प्रायश्विसन किम् ?।१। अर्थात-जिन्होंने एक बार शील को कलङ्किकत किया हो,उन्हें प्रायसिचत्त दिये जाते हैं,परन्तु को प्रतिदिन शील को खण्डित करता है, उसको प्रायश्चित्त देने से क्श लाभ हो सकता है ? यहाँ पर पठित एकश: एक्कसि, इस शब्द से डि-[5] प्रत्यय किया गया है। ११००--अपभ्रंश-भाषा में नाम [प्रातिपदिक] से परे स्वार्थ में अ, (अड) और दुल्ल (उल्ल)

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