Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Hemchandrasuri Acharya
Publisher: Atmaram Jain Model School

View full book text
Previous | Next

Page 341
________________ A ARAMATIPAL.mummy ३२४ * प्राकृत व्याकरणम् * चतुर्थ पादः तेल]नहीं निकलता । स्नेह के निकल जाने पर वेतिल भी तिल रूप से भ्रष्ट हो कर खल रूप हो जाते हैं। यहाँ पर-१-तावत-ताउँ (तब तक), २-धावत जाउँ [जब तक] इन पदों में वादि प्रत्यय को '' यह मादेश किया गया है। 'महि' आदेश का उदाहरण यावद विषमा कार्य-सिः, जीनामां मध्ये एति । तास प्रास्तामितरो जमः, सूजनोऽप्यन्तरं वदाति ॥३।। अर्थात--जब जीवों पर विषम कार्य गति [कर्मगति ] ग्राती है,अर्थात् जीवों का अशुभ फर्मोदय होता है, तब पौरों [साधारण मनुष्यों का क्या कहना, वे तो बदल ही जाते हैं किन्तु सुजन [श्रेष्ठ व्यक्ति में भी अन्तर पा जाता है। यहां पर-----याव-जामहि [जब त], २. सावतामहि [तब तक] इन पदों में वावि अवयव को 'मोह यह प्रादेश किया गया है। १०७५-अपभ्रंश भाषा में प्रस्थम्स [जिस के अन्त में अतु प्रत्यय हो] यद् और लव इन शब्दों के अर्थात् यावल और सावत् इन शब्दों के वादि जिस के आदि में वकार हो] अवयव को जित् [जिस मे उकार इत हो] एका यह आदेश विकल्प से होता है। जैसे-याव अन्तर रामरावणयोः, तावद्धम्तरं पट्टन-प्रामयोग्यमय जेवड अन्तर रावण रामह, तेवडु अन्तर पट्टणगामह [जिल ना अन्तर राम और रावण में डकार है, उतना ही अन्तर पट्टन-नगर और ग्राम में होता] यहां पर १-यायव जेवा (जितना), २-ताबद्--तेबड़ (उतना) इन पदों में यादि अवयव को हिद् एवई' यह प्रादेश विकल्प से किया गया है। प्रदेश के प्रभाव पक्ष में--पावद का जेत्तुलो [जितना] और सावन का सेस लो [उतना] यह रूप बनता है। १०७६-अपभ्रंश भाषा में प्रवन्त इदम् और किम् अर्थात् इयत् और कियत् इन शब्दों के घकारावि [जिसके प्रादि में यकार हो] अवयव को चित एवई' यह आदेश विकल्प से होता है । जैसे१-सप अन्तरम् - एकडु अन्तरु [इतना अन्तर है],२-किय अन्तरम् केवड अन्तर? [कितना अन्तर है?] यहा तर यकारादि अवयव के स्थान में जित् 'एचड' यह मादेश विकल्प से किया गया है। पादेश के प्रभावपक्ष में- इयम् का एसुलो और रिया का केसुलो यह रूप बन जाता है। १००-अपभ्रश भाषा में परस्पर' शब्द के प्रादि में अकार जोड दिया जाता है। जैसे-- ते मुदमाः हरिताः ये परिविष्टाः सेषाम् । परस्परं युध्यमानानां स्वामी पीडितः येषाम् ||१|| अर्थात--परस्पर लड़ने वाले जिन लोगों के स्वामी पीडित दुःखी हो, उनको परोसे गए मूग व्यर्थ ही जाते हैं। भाव यह है कि जो सेवक परस्पर लड़ते रहते हैं, और स्वाभी को खेद खिन्न बनाते रहते हैं, उनको दिया गया बेतन या पारितोषिक निष्फल ही समझना चाहिए। यहां पर..परस्परम् अवरोप्पर प्रापस में] इस पद में आदि में प्रकार का संयोजन किया गया है। १०९१-अपभ्रंश-भाषा में कार प्रादि ग्यजनों में यदि एकार और ओकार स्थित हो तो प्रायः इन के उच्चारण में लाघव किया जाता है। अर्थात् इनके उच्चारण में लघुता मा जाती है, एकार और ओकार को हस्थ मान लिया जाता है। जैसे---सुखेन चिन्यले मानः-सुधे चिन्तिज्जइ माणु [सुख की दशा में स्वाभिमान का चिन्लन किया जाता है], २ ...लस्य अहं कलियुगे दुर्लभस्य तसु हः कलियुगि दुल्लहहो [कलियुग में उस दुर्लभ को] यहां पर-सुखेन---सुघे इस पद में ए

Loading...

Page Navigation
1 ... 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461