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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टोकाइयोपेतम् ★
करते समय घूँट भरने की जो घुष्ट यह आवाज भाया करता है, वह भी समाप्त हो गई । aarsfप नाथ: ममेव गृहे सिद्धार्थान बम्बते ।
arata fure: गवाक्षेषु मर्कटचेष्टां ददाति ॥३३॥
अर्थात् - अभी तो मेरा नाथ घर में ही सिद्धार्थ ( देवविशेष) को वन्दन कर रहा है, तथापि face-fant गवाक्ष ( झरोखे) में मर्कट वेष्टा ( वानर का हावभाव ) कर रहा है । अर्थात् पतिदेव के विदेश जाने से पूर्व ही उनका विरह मुझे परिपीडित बना रहा है। यहां पर चेष्टा के अनुकरण में शब्द का प्रयोग किया गया है। सूत्र में पठित यादि शब्द से चेष्टा के अनुकरण में अन्य शब्दों का भी ग्रहण किया जाता है । जैसे
शिरसि जरा-खण्ड लोमपुटी गले मणिका न विशतिः ।
ततोऽपि पोष्ठाः कारिताः, मुग्धया उत्थानोपवेशनम् ||४||
अर्थात् -- उस मुग्धा सुन्दरी के सिर पर जरा खडित ( बहुत पुरानी, फटी हुई), लोमपुटी (लोई) है भीर गले में बीस मनके भी नहीं है । श्रर्थात् उस ने कोई हार भी नहीं पहन रखा है, सथाप अपने स्वाभाविक सौन्दर्य के कारण वह गोष्ठ (गोशाला ) में स्थित व्यक्तियों को उत्यानोपवेशन (उठना, बैठना ) करवा रही है, उन्हें सचवा रही हैं। यहां पर उठने बैठने की चेष्टा के अनुकरण में 'उट्टबईस' इस शब्द का प्रयोग किया गया है।
★ अथ लिप्नात - शब्द-विधिः ★
१०६५ - घइमादयोऽनर्थकाः । ८ । ४ । ४२४ । प्रपत्र से घइमित्यादयो निपाताः म प्रयुज्यन्ते ।
अम्मfड ! पच्छायावडा पिउ कलहिउ विवालि । at farit बुद्धst होइ विणासहों कालि ॥१॥ आदिग्रहणात् खाई इत्याचयः ।
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१०६६ - तादों केहि तेहि-रेसि-रेसि-तणेणाः । ८ । ४ । ४२५ | अपभ्रंशे तादय द्योत्ये केहि, तेहि, रेसि, रेसि, ता इत्येते पंच निपाताः प्रयोक्तव्याः ।
ढोल्ला ! एह परिहासडी अs ! सण कवणहिँ देसि ? | हउ भिज्ज त केहिं पिश्र ! तु पुणु अन्नहि रेसि ॥ १ ॥
एवं तेहि रेसिमादाहार्यो । वडत्तणहों ता (३६६, ४) १
★ अथ मिानशब्द विधिः ★
निपात-शब्दस्य यदर्थसम्बन्धि-चिन्तनमपेक्षितं वर्तते तत् ६२६ सूत्रे विहितमस्ति । पत्र -भाषायां निपात-शब्दानां यत्स्वरूपं स्वीक्रियते तन्निरूप्यते ।
१०१५ - घद्दमित्यादयः । घई, खाई इत्यादयोऽनर्थकाः, न विद्यतेऽर्थो यस्थ, सोऽनर्थकः, तदेवाकः ते निपात-शब्दाः प्रपभ्रंशभाषायां प्रयुज्यन्ते । यथा ४८८ सूत्रेण पादपूतों ने स इत्यादयः प्रयन्ते एवमेवापभ्रंश भाषायामपि प्रस्तुतेन [ १०९५] सूत्रेण
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इत्यादयोऽन्यः