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चतुर्थपादः
★ संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★
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कार के तथा दुर्लभस्य दुल्लहहो, इस पद ओकार के उच्चारण में लाघव लाया गया है। अर्थात्उच्चारण करते समय इनको हलकी श्रावाज से [ह्रस्व की भाँति ] बोला जाता है।
१०८२- अपभ्रंश भाषा में पद के अन्त में विद्यमान जं, है, हि और हूं इन शब्दों के उच्चारण में प्रायः लाघव होता है । श्रर्थात् अपभ्रंश भाषा में उं हूं, हि और हं इनका अनुस्वार अनुनासिक हो जाता है। ध्यान रहे कि अनुस्वार को गुरु माना जाता है और अनुनासिक को लघु । श्रतः उचारण के लाघव का अर्थ है --- उस का ह्रस्व बन जाना । जैसे १ – अन्यद् यत् लुछकं तस्याः धन्यायाः प्रन्तु जुतुच्छउँ त घण [उन नायिका का अस्य जो तुच्छ है ], २-बलि क्रिये सुजनस्य बलि किज्जउँ सुण [ सज्जन पुरुष के मैं बलिहारी जाती हूं], ३ -- देवं घटयति बने तरूणाम् = दइउ घडावद्द [नों के लिए यों के फल दिदा कर देता है], ४--हम्पोऽपि वल्कतरु विक्कलु [ वृक्षों से छाल भी ], ५-- खड्ग विसादितं यस्मिन् सभामहे लग्ग-विसाहि जहिं हं [जिस देश में तलवार से विसाधित-कमाया हुआ प्राप्त करते हैं], ६– तृणानां तृतीया भङ्गी नापितहुँ त इज्जी भनि त्रि [तिनकों की तीसरी अवस्था नहीं है] यहां पर -१छम् तुच्छउँ तथा क्रिये== क्रिज्जउं, इन पदों में 'उ' के २ तहरणाम् तरुहुँ, इस पद में हूं के तथा ३- तृणानाम् तनहुँ, इन पदों में हं के उच्चारण में लाघव लाया गया है। प्रायः [ बहुल ] का अधिकार होने से लहहुं वहां पर प्रस्तुतसूत्र की प्रवृत्ति नहीं हो सकी।
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१०८३- अपभ्रंश भाषा में 'व्ह' इस के स्थान में मकाराकान्त [ मकार से युक्त ] भकार प्रर्थात् 'म्भ' यह प्रदेश विकल्प से होता है । वृत्तिकार फरमाते हैं कि ३४५ सूत्र से क्षम, इम, हम और स्म आदि संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान में होने वाले 'म्ह' इस प्रदेश का यहां पर ग्रहण किया जाता है, क्योंकि संस्कृतभाषा में 'म्ह' यह संयुक्तवर्ण सम्भव हो नहीं है। जैसे - १ - प्रोसः गिम्हो गिम्भो (गरमी की ऋतु), और २ - इलमा सिम्हो = सिम्भो (बलगम) इन पदों में 'म्ह' के स्थान में 'म्भ' यह आदेश किया गया है। ब्रह्मन् 1 ते विरलाः केऽपि नराः सर्वाङ्ग छेकाः । ये वनाः ते थकतराः ये श्रमय से यतोवर्दाः ||१||
अर्थात् हे ब्राह्मण ! ऐसे मनुष्य संसार में बहुत कम हैं, जो सर्वप्रकार से दक्ष [र] हों, क्योंfe जो हैं, तो वचक [ धोखा देने वाले ] हैं, और जो ऋजु-सरल है, वे बलीवर्द-बैल के समान हैं, मूर्ख हैं। यहां परब्रह्मन् !!म्भ ! [हे ब्राह्मन् ] इस पद के 'ह' को 'भ' यह श्रादेश किया गया है ।
१०८४ - अपभ्रंश भाषा में प्रत्याह इस शब्द के स्थान में अन्नाइस और अवराइम ये दो आदेश होते हैं । जैसे- अन्यादृशः अन्नाइसो, श्रवराइसो [ मौरों जैसा ] यहां पर धन्यादृश शब्द के स्थान में अन्नाइस और अवराइस ये दो श्रादेश किए गए हैं। १०८५ - यपभ्रंश भाषा में "प्रायः " इस अव्ययपद के स्थान में प्राउ, प्रादव, प्राहम्ब प्रौद प ये चार श्रादेश होते हैं । जैसे
अम्ये ते दोघे लोचने, अभ्यव तव भुज-युगलम् 1 ग्रन्यः स धन-स्तन- भारः, तदन्यदेव मुख-कमलम् ॥ अन्यः स केशकलापः सोऽन्य एक प्रायो विधिः । येन नितम्बिनो घटिता, सा गुण-लावण्य-निषिः ॥ १॥