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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टोकाद्वयोपेतम् * प्रादेशकार्य होते हैं। अब सूत्रकार द्वारा उनका निर्देश किया जा रहा है.--
१०६७.--अपभ्र भाषा में, पर के नादि में वर्तमान (विद्यमान स्वर से परे, असंयुक्त क, स्व, त, थ, प और फ इन व्यजनों के स्थान में प्रायः यथासंख्य (क्रमशः) ग, घ, द, प, छ और भये आदेश होते हैं। कार के स्थान में किए गए गकार का उदाहरण ---
या दृष्टं सोम-ग्रहणमसतीमिः हसितं निश्शंकम् ।
प्रिय-मानुष-विक्षोभ-करं गिल, गिल राहो ! मृगाङ्कम् ॥१॥ अर्थात्-असती[कुलटा] स्त्रियों ने जब चन्द्र-ग्रहण को देखा, तो वे खिलखिलाकर हंसी और कहने लगी कि हे राहो!प्रिय मनुष्यों के विरह के कारण अशान्ति पैदा करने वाले चन्द्रमा को तु बिना किसी शंका के निगल जा, निगल जा।
यहां पर----प्रिय-मानुष-विक्षोभकरम् = पिन-माणुस-विच्छोह-गरु [प्रिय मनुष्यों के वियोग के कारण विक्षुब्ध करने वाले को इस पद में कार के स्थान में गकार का आदेश किया गया है । खकार के स्थान में किए जाने वाले धकार का उदाहरण
___अम्बिके ! स्वस्थावस्थः, सुखेन चिन्त्यते मानः ।।
प्रिये दृष्टे व्याकुलस्वेन कश्चेतते आस्मानम् ? ॥२१॥ अर्थात्-हे जननि ! स्वस्थ अवस्था में स्वाभिमान का चिन्तन करना सुगम है, परन्तु प्रियजन के दिखाई देने पर व्याकुलता के कारण अपने-माप का किस को भान रहता है ?
यहां पर सुखेन- सुधि (सुख के साथ) इस पद में खकार के स्थान' में धकार का प्रादेश किया गया है । सकार, थकार, पकार तथा फकार के स्थान में क्रमशः किए जाने वाले वकार, धकार, बकार तथा भकार रूप आदेश के उदाहरण
शपथं कृत्वा कथितं मया, तस्य परं सफलं जन्म ।
यस्य न त्यागः, न चारभटी, न च प्रमुषितो धर्मः ॥३॥ अर्थात- मैं शपथ [सौगन्ध] खाकर कहता है कि उसी व्यक्ति का जन्म सफल होता है कि जिस का त्याग [दानधर्म], भारभटी [शूरवीरता] तथा धर्म नष्ट नहीं हुआ है।
यहां पर--१-कथितम् कधिदु [कहा है। इस पद में यकार को धकार और सकार को बकार का आदेश किया गया है। २-शपषम् - सबधु [सौगन्ध] इस पद में पकार को धकार तथा थकार को षकार कर रखा है। ३- सफलम् सभलउँ [फल वाला], इस पद में फकार को भकार बनाया गया है । प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत सत्र में "अनावो[प्रादि में अविद्यमान] इस पद का ग्रहण क्यों किया गया है। उत्तर में निवेदन है कि-शपथं कृत्वा =सबधु करेप्पिणु[शपथ करके]प्रादि प्रयोगों में आवित ककार को गकारावेश न हो जाए.इसलिए सत्रकार ने अनादी इस पद का उल्लेख किया है । पुनः प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत सूत्र में "स्वराद[स्वर से परे हो]"यह पद क्यों पढा है ? उत्तर में निवेदन है कि-गिल पिल राहो ! मगाकम् - गिलि गिलि राहु ! मयङ्कु [हे राहो ! चन्द्र को निगल जा,निगल जा] इस प्रयोग में इकार व्यञ्जन] से परे ककार को सकारावेश न हो, इस दृष्टि से सूत्रकार ने स्वरात् इस पद का प्राश्रयण किया है। पुन: पाशंका उत्पन्न होती है कि सूत्रकार ने "असंयुक्तानाम् संयोग-रहितों को इस पद का उल्लेख किस उद्देश्य से किया है ? उत्तर में निवेदन है कि-एकस्मिन् अक्षिण धावणः- एक्कहि प्रक्खिहिं सावणु[एक मांख में श्रावण मास है ] यहां पर