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* प्राकृत व्याकरणम् *
चतुर्थपादा तो उस समय ऐसे प्रतीत हो रही थी,जैसे सर्वाशन रिपु-संभय चन्द्रमा) की किरणें वापिस लौट गई हैं। मर्थात् नायिका का रंगरूप चन्द्रकिरणों जैसा तेजस्वी था।
यहां पर 'अनुगम्य' इस क्रियापद के स्थान में प्रस्तुतसूत्र से-'भवंचित' यह प्रादेश किया गया है। तीसरा रखाहरण
हवये शल्यायसे गौरी, गगने गर्जति मेघः ।
वर्षा-रात्रि-प्रवासिनां विषम संकटमेत ॥४॥ अर्थात-पाकाश में मेध गरज रहा है, हृदय में गौरी सन्दरी का शल्य-कांटा वेदना कर रहा है। सचमुच प्रवासियों [प्रदेश में यात्रा करने वालों के लिए वर्षा की रात्रि बडी संकट मय होती है !
यहां पर माल्यायतें इस क्रियापद के स्थान पर 'खुटुक्कई' यह मादेश किया गया है। तथा 'गर्जति' इस क्रियापद के स्थान पर 'घुडकई यह आदेश कर रखा है। चौथा उधाहरण
____ अम्ब ! पयोषरो धनममौ मिस्र्य यो सम्मुखं तिष्ठतः।।
मम कान्तस्य समराहगराके गजघटाः भस्वा यान्ति ॥५॥ अर्थात-जिस मेरे कान्त-प्रीतम के सामने रणभूमि में हाथियों के झुण्ड भी हार कर भाग जाते हैं,उस के सामने भी ये स्तन वैसे ही खडे रहते है। अतः हे मालमिरे ये स्तम वजमय प्रतीत हो रहे हैं.
यहां पर प्रस्तुतसूत्र के द्वारा 'भजो (भज) इस धातु के स्थान पर 'भाज' यह प्रादेश किया गया है । पांचवों उदाहरण--
पुत्रेण जासेन को गुणः अपगुणः को मृतेन ?।
या पैतकी समिः आक्रम्यतेऽपरेण ॥ अर्थात-उस पुत्र के पैदा होने से क्या लाभ है ? तथा उसके मर जाने पर भी.क्या हानि हो सकती है ? जिस के होते हुए पैतृको भूमि दूसरे से आक्रान्त हो जाती हो। - यहाँ आफम्पते इस नर्थ में चम्पिज्जई इस क्रियापद का आदेश किया गया है । छछा उदाहरण
तत्तावत् जलं सागरस्य, स तावान् विस्तारः।
सषायाः निवारणं पलमपि, नापि पर शब्दायतेऽसारः ।।७।। प्रर्थात- सागर में इतना महान जल है और इसका इतना विशाल विस्तार है, तथापि यह प्यासे की थोड़ी सी तृषा का भी निवारण नहीं कर सकता और व्यर्थ ही शब्द कर रहा है । यहां पर 'शम्बायते' इस क्रियापद के स्थान में धुदाइ यह प्रादेश किया गया है।
* अथ काऽऽवियजनानां गाऽऽादेशविनिः* १०६७ अनादौ स्वरावसंयुक्तानां क-ख-त-थ-प-फां ग-ध-व-ध-ब-माः।८।४ । ३६६ । अपभ्रशेऽपदादौ वर्तमानानां स्वरात्परेषामसंयुक्तानां क-ख-त-थ-प-फा स्थाने यथासंख्यं ग-घद-ध-ब-भाः प्रायो भवन्ति । कस्य गः।।
जं विट्ठउँ सोम-गहणु प्रसइहि हसिउँ निसङकु । पिन-माणुस-विच्छोह-गरु गिलि गिलि राह! मयकु ॥१॥ अम्मीए ! सत्थावत्थेहि सुधि चिन्तिज्जइ माणु । पिए बिठे हल्लोहलेण को खेमइ अप्पाणु ? ॥२॥