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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् *
२५७ यद समस्या शकुतिः स्थितः पुन शासन उक्त्वा ।
तदाऽहं जानामि एष हरिः यदि समाप्रतः उक्त्वा ॥१॥ अर्थात-दुर्योधन अभिमानपूर्ण भाषा में बोलता हुमा कहता है कि मेरे सामने इतना कह कर शनि बैठ गया,फिर दुश्शासन भी इतना बोल कर बैठ गया,किन्तु तब जान यदि मेरे प्रागे यह कृष्ण भी पूछ कह कर दिखाए ? अथीत श्री कृष्ण का मेरे सामने बोलने का साहस नहीं है।
यहां पर-उवालोप्पिणु तथा बोधि (कहकर) इन पदों में ग् धातु का प्रयोग किया गया है, किन्तु वैकल्पिक होने के कारण प्रस्तुत सूत्र से इसे दूध यह प्रादेश नहीं हो सका।
१०६३ अपश-भाषा में व धातु के स्थान में 'युज' यह प्रादेश होता है । जैसे---- मजलि ==बुबइ (वह जाता है), २-अजिस्वा=प्पि, वुजेपिणु (जाकर) यहाँ पर अज् धातु को बुन यह प्रादेश किया गया है।
१०६४-~-अपभ्रंश भाषा में हम-धातु के स्थान में 'प्रस्स'यह प्रादेश होता है। जैसे-पश्यति प्रस्सदि (वह देखता है। यहां पर दृश् धातु को प्रस्स यह मादेश किया गया है।
१०६५-अपभ्रशं भाषा में ग्रह, धातु के स्थान में 'गृण्ह' यह प्रादेश होता है। जैसे--पगहोत्या व्रतम् = पढ गुण्हेप्पिणु तु (वत को ग्रहण करके पढो) यहां पर ग्रह, धातु के स्थान में गृह यह मादेश किया गया है।
१०६६-अपभ्रंश भाषा में तक्षि आदि धातुओं के स्थान में 'शोल्ल' आदि प्रादेश होते हैं । जैसे
যা যথা রাগ লাং এ যধি সাধন।
तथा जगति गौः मखमलस्य संशव किमपि अलप्स्पत ॥शा प्रयत-यदि तीक्ष्ण शस्त्रों को लेकर चन्द्रमा प्रपनी किरणों को तक्षण करें चन्द्रमा पनी
शेले तो ही वहा चन्द्रमा ] गौरी[गौरवणं वाली नायिका या शिव-पत्नी पार्वती] के मुख-कमल की कुछ [थोड़ी सी समानता को प्राप्त कर सकता है । अर्थात---गौरी की सुन्दरता के सामने चन्द्रमा का सौन्दर्य नगण्य है।
यहां पर प्रतिक्षिष्यत- छोरिलज्जन्तु (तक्षण किया जाए) इस पद में प्रस्तुत सुत्र से तक्षिधातु के स्थान से छोल्ल यह आदेश किया गया है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि सूत्रोक्त तस्यादीनाम्' इस पद में पठित धादि-पद से बेशीय प्राकृत-भाषामों में जो-जो भी क्रिया-बचन उपलब्ध होते हैं, उन सब के उदाहरण भी ग्रहण कर लेने चाहिएं। जैसे
घटकः पूर्णीभवति स्वयं मूग्धे ! कपोले मिहितः ।
वासानल-चाला-संतप्तः बाप-सलिल-संसिक्तः ॥२॥ अर्थात हे मुग्धे ! (हे सुन्दरि ! ) कपोल पर रखा हुधा कंकण श्वासरूपी अग्नि-ज्वालामों से संतप्त तथा अश्रु-जल से संसिक्त (सींचा हुआ) हो जाने के कारण अपने आप ही चूरा-चूरा हो रहा है।
यहां पर श्वासानल-वासा-संतप्तः इस समस्त पद में पठित संतप्त इस क्रियापद के स्थान में झलक्क यह प्रादेश किया गया है । दूसरा उदाहरण
अनुगम्य है पदे प्रेम निवर्तते यावत् ।
सशिम-रिपु-संभवस्य करा: परिबलाः तावत् ।।३।। अर्थात यो कदम पीछे चल कर प्रेम [प्रेमवती नायिका] जिस समय वापिस लौट रही थी