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चतुर्थपादा
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् ★ यहां पर अवस् शब्द का शस् प्रत्यय के परे रहते 'ओई' यह रूप बन जाता है।
१०३६-अपभ्रश भाषा में सि आदि प्रश्पयों के परे होने पर इदम् शब्द के स्थान में 'आय' यह आदेश होता है । जैसे--
इमानि लोकस्य सोचमानि जातिम स्मरन्ति न भ्रान्तिः ।
प्रिय दृटे बुकुलितानि प्रिये हण्टे विहसन्ति ॥१॥ अर्थात लोगों के ये लोचन-नयन अपनी जाति का अपनी जाति वाले कमलों का] स्मरण करते हैं, इस में कोई भ्रान्ति सन्देह नहीं है, अप्रिय के देखने पर ये मुकुलित [बन्द] हो जाते हैं और प्रिय के देखने पर विकसित । भाव यह है कि जैसे सूर्यविकासी या चन्द्रविकासी कमल सूर्य या चन्द्र को देख कर विकसित तथा इन के अस्त हो जाने पर मुलित हो जाते हैं, वैसे ही प्राणिजगत के नयन भी प्रिय को देखकर विकसित-प्रसन्न और अप्रिय जन को निहार कर मुकुलित-उदासीन हो जाते हैं।
यहां पर इमानि प्रायई [2] इस पद में प्रस्तुत सूत्र से अस् प्रत्यय परे होने पर इदम् शब्द के स्थान में 'आय' यह आदेश किया गया है। पाय-यादेश का दूसरा उदाहरण
शुष्यतु मा शुष्य का सवधिः, परवानलस्य किन ?।।
यद् विलास जले ज्वलना, अनेनापि किन पर्याप्तम् ॥२॥ अर्थात-उदधि-समुद्र' सूखे अथवा न सूखे, वडवानल समुद्र की अग्नि] को इस से क्या प्रयोजन है ? जल के मध्य में वह अग्नि जलती रहती है, क्या इतना ही पर्याप्त नहीं ? अर्थात् जल में - ग्नि का सदा जाज्वल्यमान रहना, यह भी बहुत बड़ी बात है। शक्तिशाली शत्रु का भले ही बीजनाश न हो तथापि अशक्त व्यक्ति का सशक्त व्यक्ति के विरोध में खड़ा होना ही बडे साहस का कार्य है।।
___ यहां पर अनेन एण (इस से) इस पद में टा-प्रत्यय परे होने पर इवम् शब्द के स्थान में प्राय यह पादेश किया गया है। प्राय-यादेश का तीसरा उदाहरण
अस्य वध-कलेवरस्य यद वाहित तस्सारम् ।
यदि आपछाधते तवा कुष्यति, अथ वह्यते तदा भारः ॥३॥ प्रर्यात-इस दग्ध-कलेवर [निकृष्ट शरीर] में से संयम प्रादि अध्यात्म अनुष्ठानों के द्वारा जो प्राप्त कर लिया जाए, वही सार है, उत्तम है क्योंकि यदि इसे दबाया (दफनाया) जाए तो यह सड़ जाता है, और यदि इसे जलाया जाए तो इस की राख बन जाती है।
यहां पर पठित --अस्य प्रायहो" (इस का) इस पद में उस-प्रत्यय परे होने पर प्रस्तुत सूत्र से इदम् शब्द के स्थान में 'आप' यह मादेश किया गया है। १०३७. अप, शभाषा में सर्व शब्द के स्थान में साह'यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे----
सर्वोऽपि लोकः प्रस्पन्वते बृहस्वस्य कृते ।
ब्रहरवं परिप्राप्यते हस्तेन मुक्तेन ॥१॥ अर्थात---सब लोग बड़प्पन के लिए बेचैन हो रहे हैं,परन्तु यह बडप्पन तो मुक्त हस्त से अर्थात् दान करने से ही प्राप्त होता है।
यहां पर सर्वसाहु (सब) इस पद में सर्व शब्द को 'साह' यह आदेश विकल्प से किया गया है। जहां पर यह आदेश नहीं हो सका, वहां पर "सर्वः अपि" का 'सन्धु वि (सब ही) यह रूप बन जाता है।
१०३६-अपभ्र या भाषा में किम् शब्द के स्थान में काई(काई)ौर मवरण ये दो मादेश विकल्प