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चतुषंपाद:
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* संस्कृत-हिन्दो-टीकाद्वयोपेतम् ★ अर्थात-हे भ्रमर! तु रुणझुणि इस प्रकार के शब्द मत कर और उस दिशा को देख कर रुदन भी न कर क्योंकि जिस के वियोग में तू मर रहा है. वह मालती [एक लताविशेष, इस के फुल बडे खुशबूदार होते है] देशान्तर [अन्य देश] चली गई है ! ।
यहां पर स्वम्-तुहं (तू) इस शाद में सि-प्रत्यय परे होने पर युष्मद् शब्द के स्थान में 'तुहूं' यह प्रादेश किया गया है।
१०४०-अपभ्रंश भाषा में सुसम्पद मान्य के स्थान में कार मोर मार बलाय गो गाने पर प्रत्येक को तुम्हे और तुम्हां ये दो आदेश होते हैं । अर्थात्-जस् प्रत्यय परे होने पर भी युष्मद् शब्द के स्थान में तुम्हे और तुम्हई ये दो प्रादेश होते हैं, भौर शस् प्रत्यय के परे होने पर भी युष्मद् शब्द के स्थान में सुम्हे और तुम्हां ये दो प्रादेश किए जाते हैं। जैसे १-यूयम् जानीय-तुम्हे, तुम्हई जाणह (तुम सब जानते हो), २-युष्मान प्रेक्षते-तुम्हे तुम्हई पेच्छइ (वह तुम को देखता है) यहाँ पर अस् पौर शास् प्रत्यय के परे होने पर युष्मद के स्थान में तुम्हे और तुम्हई ये दो प्रादेश किए गए हैं। यहां पर एक प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत सूत्र में 'अस्-शतोः' यह द्विवचनान्त पद है, और 'तुम्हे तुम्हेई' ये पादेश पद एकवचनान्त है । स्थानी और प्रादेश में यह बचन-भेद क्यों रखा गया है ? उत्तर में निवेदन है कि इस वचनभेद का कारण ययासंख्यमनुदेशः समानाम् [स्थानी और प्रादेश की संख्या समान हो तो वहां पर आदेश क्रम से प्रथम को प्रथम और दूसरे को दूसरा इस प्रकार यथासंख्या होते हैं] इस. परिभाषा को निवृत्ति करना है । अर्थात्-वचन-भेद के कारण यहां पर इस परिभाषा की प्रवृत्ति नहीं होती है। . . . . .१०४१-अपभ्रंश भाषा में टा, कि तथा पम् इन प्रत्ययों के साथ युष्मद् शब्द के स्थान में पई [प] और तई [त]ि ये दो प्रादेश होते हैं। पर और तई ऐसा पाठातर भी उपलब्ध होता है । प्रतः प्रादेशों के दोनों प्रकार मावश्यकतानुसार यथास्थान प्रयोग में लाए जा सकते हैं । टाप्रत्यय का बाहरण इस प्रकार है--
त्वया मुक्तानामपि बरतरो! अध्याति पत्रत्वं न पत्राणाम् ।
तब पुनः छाया यदि भवेत्, कथमपि तावत् तेः पत्रः || अर्थात-हे श्रेष्ठ वृक्ष! तुझ से छोड़ देने पर भी पत्रों (पत्तों) का पत्र-त्व समाप्त नहीं होता, परन्तु तेरी छाया तो उन पत्रों के अस्तित्व पर ही निर्भर है । भाव यह है कि हे वृक्षराज ! तुम्हारे से वियुक्त हो जाने पर भी पत्रों का पत्रत्व [उन का अपना स्वाभाविक गुण] कहीं नहीं जाता, किन्तु पत्रों के अभाव में तुम्हारा तो स्वरूपही लडखडा जाता है, क्योंकि पत्रों के बिना छाया प्रदान करने की तुम्हारी क्षमता ही समाप्त हो जाती है। अतः तुम्हारी शोभा तो पत्रों के साथ ही है।
. यहां पर स्वमापई (तुझ से) इस पद में टा-प्रत्यय के साथ युष्मद शाब्द के स्थान में 'पई यह प्रादेश किया गया है। टा-प्रत्यय का दूसरा उदाहरण
मम एवम ! स्वया, तया स्वं, सापि अन्येन विनाट्यते ।
प्रिय !क करोम्पह कि त्वं मत्स्येन मत्स्प: गिल्यते ॥२॥ अर्थात्-तुझ से मेरा हृदय तथा उस से तू विडम्बित हो रहा है और वह किसी प्रत्य पुरुष से विम्बित की जा रही हैं [खिन्नता अनुभव कर रही है ] प्रिय ! मैं क्या करूं और तू भी क्या करे ? ... सच तो यह है कि बड़े मत्स्य के द्वारा छोटे मत्स्य को निगला जा रहा है।...