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AURA
२२६ * प्रकृत-क्ष्याकरणम् *
चतुपादः से होते हैं । काई के स्थान पर काई ऐसा पाठान्तर भी उपलब्ध होता है। अतः प्रादेश के दोनों प्रकार यथास्थान प्रयुक्त किए जा सकते हैं । जैसे
यदि म स आयाति इति ! गृहं शिमधोमुखं तब? ।
वचनं यः खण्यति सबसखिकेस प्रियो भवति न मम ॥१॥ पतहे दूति यदि वे घर नहीं पाते तो तेरा मुख प्रघः (अवनत) क्यों हो गया है ?, तू उदासीन क्यों हो गई है ?, हे सखि ! जो तेरा वचन खपिडत करता है, तेरा कहना नहीं मानता है, वह मेरा भी प्रिय नहीं हो सकता । अर्थात् मेरा भी उस से कोई सम्बन्ध नहीं है।
यहां पर-किम के स्थान में 'काई" यह आदेश किया गया है। दूसरा उदाहरण-किन दुरे पानि ?-काई नदरे हेदखद? [ वह हर नहीं देखता है] यहां पर भी किम शब्द के स्थान में 'काई यह आदेश कर रखा है। यह श्लोक का चतुर्थ चरण है, सम्पूर्ण श्लोक १०२० वें सूत्र में दिया जा चुका है। तीसरा उवाहरण
स्फोटयतः यो हुक्ममारमीय समोः परकीया का घुमा ? |
रक्षत लोकाः ! बात्मानं बालायाः माती विषमा स्तमौ ।।। इस लोक का अर्थ १०२१ वे सूत्र में लिखा जा चुका है। यहां पर कार के स्थान में कवण यह प्रादेश किया गया है । चतुर्थ उबाहरण---
सुपुरषाः कलोः अनुहरम्ति भरण कार्येण फेन ? |
यथा यथा बृहस्वं लभन्ते लपा सपा नमस्ति शिरसा ॥३॥ अति---सज्जन पुरुष कगु नामक मौधे का अनुसरण-अनुकरण करते हैं ? यह अनुकरण कैसे किया जाता है? इस बात को स्पष्ट करते हुए इलोककार कहते हैं कि जैसे कागु के पौधे को ज्यों-ज्यों फल आते हैं त्यों-त्यों बह नीचे की ओर झुकता चला जाता है, वैसे ही सज्जन पुरुष ज्यों-ज्यों बड़प्पन प्राप्त करते हैं, त्यों-त्यों शिर के द्वारा विनत-विनम्र होते चले जाते हैं। भाव यह है कि सज्जन व्यक्तियों की महानता नम्रता में है, अभिमान में नहीं।
यहां पर के कवरण [किस से] इस पद में हम-प्रत्यय के परे रहने पर किम शब्द के स्थान में 'करण' यह प्रादेश किया गया है। जहां पर प्रस्तुत सूत्र की प्रवृत्ति नहीं होती है वहां पर किम् शब्द को काई और कवा ये प्रादेश नहीं होते । जैसे
यथा सस्नेहा सबा मृतिका, अप जीवति नि:स्नहा।
द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां गतिका पन्या, किमर्जसि खलमेध ! ॥४॥ अर्थात-यदि वह स्नेह से युक्त है, तो वह मर चुकी है, यदि जीवित है तो स्नेह से रहित है। मेरे लिए वह दोनों अवस्थाओं में ही मृतक के समान है। इसलिए हे दुष्ट मेध! तू क्यों गरज रहा है ?
यहां पर वैकल्पिक होने के कारण प्रस्तुत सूत्र से किम् शन्द के स्थान में काई या कवण यह मादेश नहीं हो सका। प्रतः किम् शब्द का कि यह रूप बनाया गया है।
१०३६----अपभ्रंश-भाषा में सि-प्रत्यय के परे होने पर युष्म शब्द के स्थान में 'तुहं यह मादेश होता है। जैसे ---
भ्रमर ! मा परिण [इति] शम्बय, तो विश दृष्टा मा विहि । सा मालती देशान्तरिता पस्पा: [] नियसे वियोणे ।।१।।