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चतुर्थपादः
ही स्थिति श्रागे भी समझनी चाहिए।
६५२ -- शौरसेनी भाषा में बेटि दासी के सम्बोधन में 'हजे' इस निपात को प्रयुक्त किया जाता है। जैसे—हे चतुरिके !हजे ! चदुरिके । (अयि चतुर दासी !), यहां पर वासी के सम्बोधन में इस निपात का प्रयोग किया गया है।
प्राकृत-व्याकरणम्
९५३ -- शौरसेनी भाषा में विस्मय और निवेद ( ग्लानि) इन अर्थों में हीमाणहे इस निपात का प्रयोग किया जाता है। विस्मय का उदाहरण हो जो वत्सा मे जननी होमाण हे जीवन्तव मे जणणी (भाइचर्य है कि मेरी माता जीवद्वत्सा (जिस का वत्स (बछडा, बेटा) जीवित हो ) है ) निर्वेद का उदाहरण हा ! परिजन्तो वयमेतेन निजविधैः बुर्व्यवसितेनहीमाणहे पलिस्सन्ता हगे एण नियविधि दु-वसिदेण [ खेद है कि हम परिष्वङ्ग (मेल, स्पर्श अथवा मालिङ्गन) करते हुए अपने भाग्य की प्रतिकूलता से ( फंस गए ) ] यहाँ पर विस्मय और निर्वेद अर्थ में 'होमानहे' इस निपात का प्रयोग किया गया है ।
९५४ - शौरसेनी भाषा में "तु इस अव्ययपद के अर्थ में एवं इस निपात का प्रयोग किया जाता है। जैसे - १ - ननु प्रफलोदया !-णं श्रफलोदया ! ( मैं पूछता हूं कि क्या यह नारी अफलोदया (जिस का उदय-जन्म फलयुक्त न हो) है ? ), २ नतु आर्य- मिथेः प्रथममेव प्राज्ञतम् ? अय्यमिसेहि पुढमं य्येव श्राणसं ? ( क्या श्रार्य मिश्र भद्र पुरुषों ने पहले ही यह श्राज्ञा प्रदान कर दी थी, ३- ननु भवान् मे अग्रतः चलतिणं भवं मे ममादो चलदि (मुझे सन्देह है कि भाप मेरे आगे चल रहे हैं यहां 'मनु' इस अर्थ में '' इस निपात का प्रयोग किया गया है। -शौरसेनी में पं यह निपात वाक्य के अलंकार (सौन्दर्य) में भी देखा जाता है। जैसे - १ - नमोऽस्तु नमोऽत्यु णं (नमस्कार हो), २--यदा जया णं (जब), ३-तदातया णं (सब) यहां पर गं का प्रयोग वाक्य की सुन्दरता के लिए किया गया है।
९५५ - शौरसेनी भाषा में 'हाँ (प्रसन्नता ) ' इस अर्थ में 'अम्महे' इस निपात को प्रयुक्त किया जाता है। जैसे- हर्षः, एतया मिलया सुपरिघटितो भवान् अम्महे एमए सुम्मिलाए सुलिगढिदो भवं (यह प्रसन्नता की बात है कि सुमिला (कोई नारी) द्वारा माप खुब परिघटित (परिगृहीत) हैं) यहां पर हर्षार्थ में 'अम्महे' इस निपात का प्रयोग किया गया है।
६५६ - शौरसेनी भाषा में विदूषकों (मसखरों, भांडों, हाजिर-जवाबों) के हर्ष को प्रकट करने के लिए 'होही' इस निपात का प्रयोग किया जाता है। जैसे—हीही भो सम्पन्नाः मनोरथाः प्रियवयस्यनहीही भी संपन्ना मणोरधा वियवयस्सस्स (ग्राहा श्राहा, प्रिय मित्र के मनोरथ (इच्छाएं पूर्ण हो ne यहां पर विदूषकों के हर्ष का द्योतक होही निपात प्रयुक्त किया गया है।
६५७-शौरसेनी भाषा में जो-जो कार्य कहे जा चुके हैं, इनसे अन्य समस्त कार्य शौरसेनी भाषा में प्राकृत भाषा के समान ही होते हैं । भाव यह है कि शौरसेनी भाषा में जिन विधिविधानों का उल्लेख किया गया है, उन से प्रतिरिक्त शौरसेनी भाषा के जो विधिविधान हैं वे समस्त विधिविधान प्राकृत भाषा के विधिविधान के समान ही समझने चाहिएं। प्रश्न हो सकता है कि प्राकृतभाषा के कौन-कौन से विधिविधान हैं जो शौरसेनी भाषा के अन्तर्गत जानने चाहिए ? उत्तर में निवेer है कि प्राकृत भाषा के चतुर्थ सूत्र से लेकर ९३१ वें सू. से पहले-पहले जितने भी सूत्र हैं, और " सम्यग्र जिसका व्यवहार कोई बात पूछने, सम्देह प्रकट करने या वाक्य के प्रारंभ में किया जाता है।
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