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चतुर्थ पादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् * हरणों में टा-प्रत्यय के अभाव में इस् आदि प्रत्ययों के साथ भी तद् शब्द को नेन या नाए ये आदेश न हों इस दृष्टि से सूत्रकार ने टा इस पद का उल्लेख किया है।
६९४-पैशाची भाषा में जो कुछ कहा गया है अर्थात पैशाची-भाषा-प्रकरण में जो नियम बताए गए हैं, इन नियमों से अन्य जो नियम हैं, वे सब शौरसेनी-भाषा के ही पैशाची भाषा में लागूहोते हैं । दूसरे शब्दों में पैशाची-भाषा के शेष सभी नियम शौरसेनी-भाषा की भांति ही समझने चाहिए। जैसे-१-अथ सशरीरः भगवान मार-ध्वनो मन्त्र परिधमन भविष्यति अध सररीरो भगवं मकरबजो, एत्य परिभमन्तो हुवेय्य [इस के पश्चात् भगवान कामदेव शरीर-सहित (साकार) यहां पर परिभ्रमण करते हुए होंगे], २-एवंविषया भगवत्या कथं तापस-वेषयहरणं?=एवंविधाए भगवतीए कधतापस-वेस-गहन कतं ? (इस प्रकार की भगवती ने तपस्वियों का वेष कैसे ग्रहण कर लिया ?), ३... ईडशम् अष्ट-पूर्व महाधनं इष्टा- एतिसं अतिट्टपुरवं महाधनं तददून [ऐसा अदृष्ट-पूर्व (जो पहले कभी न देखा हो) महान धन देख कर], ४-भगवन् ! यदि माम् परं प्रयच्छसि भगवं! यति मं वरं पय
छसि (हे भगवन! यदि आप मुझे बर देते हैं), ५-राजन ! च तावत लोकस्व राज!च दाव लोक (हे राजन् ! तब तक उस को देखो) और ६-तावच्य तया दूरादेव राष्टः, स आगछन् राजा-ताव च तीए तुरातो स्येव तिछो सो प्रागच्छमानो राजा (और तब तक उस देवी ने वह प्राता हुमा राजा दूर से ही देखा), इन उदाहरणों से वृत्तिकार ने यह संसुक्ति किया है कि पैशाची भाषा में शौरसेनीभाषा की भांति भी कार्य हो जाता है । भाव यह है कि पंशाची भाषा में प्राकृत भाषा और शौरसेनी भाषा के कार्य भी हो सकते हैं। जिन-जिन नियमों का विशेष रूप से पैशाची भाषा में विधान किया गया है, उन के अतिरिक्त प्राकृत तथा शौरसेनी के नियमों का भी इस भाषा में प्राधयण कर लिया जाता है। पैशाची भाषा के किसी शब्द को सिद्ध करने के लिए शौरसेनी या प्राकृत भाषा के सूत्र का उपयोग करते समयः यह माशंका उत्पन्न होती है कि पैशाचीभाषा में प्राकृत आदि भाषाओं के नियमों का उपयोग क्यों किया गया? इसी आशंका का उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं कि पैशाची-भाषा में जो कुछ नहीं कहा गया वह सब विधिविधान शौरसेनी भाषा के समान ही समझना चाहिए। प्रस्तुत में पुनः प्रश्न हो सकता है कि सूत्रकार न तो 'शौरसेनी-चत्' (शौरसेनी के समान) यह कहा है, इसमें प्राकृत-भाषा के नाम का तो ग्रहण नहीं किया गया फिर प्राकृत भाषा का कोई नियम पैशाचीभाषा में नहीं लगना चाहिए ? उत्तर में निवेदन है कि १५७ वें सत्र से शौरसेनीभाषा को प्राकृत भाषा के तुल्य मान लेने के कारण शौरसेनी भाषा में प्राकत-भाषा मन्ताहित हो ही जाती है। प्रतः शौरसेनी के समान कहने से ही 'प्राकृत भाषा के समान' यह भाव स्वतः प्राप्त हो जाता है।
९५–प्राकृत-भाषा के १७७ वें सूत्र से लेकर २६५ वे सूत्र तक जितने भी सूत्र हैं और इन के द्वारा जिन कार्यों का विधान किया गया है, वे सब कार्य पैशाची-भाषा में नहीं किए जाते। जैसे१-मारफेतुः- मकर-केतू (कामदेव की एक उपाधि) यहां पर १७७ वे सूत्र से मकर और केतु इन दोनों शब्दों के ककारों तथा तकार का लोप होना था,परन्तु इस सूत्र ने इस लोप का निषेध कर दिया। २-- सगरपुर-वचनम् - सगर-पुत्तवचनं (सगर राजा के पुत्र का वचन) यहाँ पर १७७ वें सूत्र से गकार और चकार के लोप की प्राप्ति थी तथा २२८ वें सूत्र से नकार को णकार होना था, किन्तु प्रस्तुत सूत्र ने इन सब कार्यों का निषेध कर दिया। इसी प्रकार---विजयसेनेन लपितम् = विजयसेनेन लपित (विजयसेन नामक पुरुष ने स्पष्ट कहा), २.-मवनम्म तनं (कामदेव), ३-पापम् = पार्य (अनिष्ट आचार), ५–प्रायुधम् आयुधं (शस्त्र), ६-देवरः- तेवरो (पति का छोटा भाई) इन उदाहरणों