________________
A.
MAHAL
चतुर्षपावः
*संस्कृत-हिन्दी-टोकाइयोपेतम् ★ संगर-भतेषु यो अयेते पश्य अस्मीयं कान्तम् ।
अतिमत्तानां त्यक्ताकुशानां गजानां कुम्भान् वारयन्तम् ॥२॥ अर्थात-अत्यधिक मदसे उन्मस तथा निरङ्कुश हाथियों के मस्तकों का भेदन करते हुए, तथा सैकडों युद्धों में जिस के यश का वर्णन किया जाता है, ऐसे मेरे कान्त (धीलम) को तु देख !
यहाँ-जानाम् गाय (हाथियों के) इस शब्द में प्रस्तुत सूत्र से षष्ठी विभक्ति के प्राम्-प्रत्यय का लोप किया गया है । यहाँ पर एक प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत सूत्र से जिस कार्य का विधान किया गया है, यह विधान तो गत १०१५ वें सूत्र से ही हो जाना चाहिए था, वह सूत्र अहो पर सि. जस्, प्रम् और शस् हुन प्रत्ययों का लोप करता है,वहां इस मौर श्राम का भी लोप कर सकता था। फिर इस सत्र की स्वतन्त्र रूप से रचना क्यों की गई?,उत्तर में निवेदन है कि प्रस्तुत सूत्र की जो पृथक् रचना की गई है, उस का प्रयोजन लक्ष्य-प्रयोग का अनुसरण करना है,भाव यह है कि जिस प्रयोग में षष्ठी के लोप की प्रावश्यकता प्रतीत हो, वहां इस सत्र से लोप कर देना चाहिए, अन्यथा नहीं । इसी बात को वृत्तिकार ने-'पृथक् योग (सूत्र की रचना) लक्ष्य (प्रयोग) के अनुसरण के लिए है इन शब्दों से संसचित किया है। इसी कारण प्रस्तुत गाथा में..--प्रतिमसानाम-प्राइमत्तह, २-त्यक्ताशानाम् चत्तइकुसहं तथा ३-गजानाम-गय इन तीन षष्ठ्यन्त पदों में से केवल 'गज' शब्द के प्राम्प्रत्यय का ही लोप किया गया है, शेष का नहीं। .
१०१७---अपभ्रंश भाषा में आमन्त्रण (आमन्त्रण-सम्बन्धी) अर्थ में वर्तमान (विद्यमान) नामप्रातिपदिक से परे प्राए जस्-प्रत्यय के स्थान में 'हो' यह आदेश होता है। यह सूत्र १०१५ ३ सूत्र से होने वाले अस् के लोप का बाधक होने से लोपाऽपवाब-सूत्र कहलाता है। जैसे-
सातयः । माया मां, हस्त मामात्मनों घातम्-तरुणहो !, सरुणिहो ! मुणि मई करहु म अप्यहो घाउ [हे तरुणा-पुरुषो!, हे तरुण नारियों ! मुझे जान कर, अपनी घात (आत्महत्या) मत करो] यहां पर मामन्त्रणसम्बन्धी जस् प्रत्यय के स्थान में 'हो' यह प्रादेश किया गया है।
१०१८ - अपभ्रंशभाषा में भिस् और सुप् इन प्रत्ययों के स्थान में 'हि' यह आदेश होता है। भिस् प्रत्यय का उदाहरण, जैसे-गुणः न सम्पत्, कौतिः परम् - गुणहिँ न संपद, कित्ति पर [गुणों से सम्पत्ति नहीं,किन्तु कीति प्राप्त होती है] यहां भिस् प्रत्यय के स्थान में हि' यह प्रादेश किया गया है। यहां श्लोक का एक भाग दिया गया है। सम्पूर्ण श्लोक १००६ वें सूत्र में दिया जा चुका है। सुप् का सबाहरण-भागीरथी यथा भारते मार्गेषु विपि प्रवर्तते भाईरहि जि● भारइ मग्गे हि तिहि वि पयट्ट [जैसे गंगा नदी भारत में तीन मार्गों में बहती है] यहां मार्गेषु तथा त्रियु इन शब्दों में सुप्-प्रत्यय के स्थान में हि' यह श्रादेशश करके मम्मे हि, तिहि ये रूप बनाए गए हैं।
★ अथ स्त्रीलिङ्गीय स्मादिविधिः १०१६-स्त्रियां जस्-शसोरुदोत् ।।४।३४ अपभ्रशे स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परस्य जसः शसश्च प्रत्येकमुदोतावादेशो भवतः । लोपाऽपवादौ । जसः । अंगुलिउ जज्जरियाउ महण [३३३,४] शसः । सुन्दर-सव्वङ्गाउ विलासिणोश्रो पेच्छन्ताण । वचनभेदान्न यथासंख्यम् ।
१०२०-ट ए।८।४।३४६ । अपभ्रशे स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परस्याष्टायाः स्थाने ए इत्यादेशो भवति ।