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रासाय
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१८६ * प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः को देखते हुओं का] यहां पर सुन्दर-सर्वाङ्गाः=सुन्दर-सुबङ्गाउ,तथा बिलासिनी-बिलासिणीग्रो के शस् प्रत्यय के स्थान पर क्रमशः ३ और ओ ये मादेन किए गएँ हैं । यहाँ पर एक पाशंका उत्पन्न होती है कि 'जस्-शसोः यह स्यानिरूप पद द्वि-वचनान्स है और उदोत्' यह पादेश रूप पद एक-वचनान्त है,यह बंचन-भेध क्यों है ? उत्तर में निवेदन है कि यह वचन-भेद यहां व्यर्थ नहीं है, क्योंकि इस वचनभेद के कारण यहां पर 'यथासंख्यमनुदेशः समानाम',यह परिभाषा प्रवृत्त नहीं होती। इस परिभाषा का अर्थ है-समसम्बन्धी विधि यथासंख्य होती है, जहां पर स्थानी और प्रादेश की संख्या समान हो
को प्रथम मौर द्वितीय को बिलीय. इस तरह यथासंख्य होते हैं। इस परिभाषा के प्रवत्त न होने से यहां परमादेश यथासंख्य नहीं हो पाते। ....१०२०-सपभ्रंश-भाषा में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान नाम-प्रातिपदिक से परे पाए टा-प्रत्यय के स्थान में यह प्रादेश होता है। जैसे
निज-मख-करः अपि मुग्धा करमन्धकारे प्रतिप्रेक्षते ।
शशिमाल-चीन्द्रकया पुनः किन दूरे पश्यति ।।१।। अर्थातअपने मुख की किरणों से जब कि वह मुग्धा-सुन्दरी अन्धकार में भी अपने हाथ को बेख सकती है तो फिर चन्द्र-मण्डल की चन्द्रिका (रोशनी) के द्वारा दूर-स्थ वस्तु को क्यों नहीं देख सकती। उत्तर स्पष्ट है कि अवश्य देख सकती है।
यहाँ पर--शशिमण्डलचन्द्रिकयास सिमण्डल-चन्दिमए इस शब्द में टा-प्रत्यय के स्थान में 'ए' यह मादेश किया गया है । दूसरा उदाहरण.. यस्मिन मरकत-कान्त्या संवलितम् = अहि मरगय-कन्तिए सलिों जिस में मरकत-मणि की कान्ति (प्राभा) से मिला हुा] यहां पर कान्ल्या कन्तिए, इस शब्द में टा-प्रत्यय के स्थान में 'ए' यह प्रादेश किया गया है।
१०२१-अपन'श-भाषा में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान माम-प्रातिपदिक से परे माए ङस् और ङसि इन प्रत्ययों के स्थान है। यह प्रादेश होता है । उस-प्रत्यय का उदाहरण
तुच्छमध्यायाः तुच्छ-अल्पित्र्याः (तुच्छजल्पन-शीलायाः), तुच्छाच्छरीमावल्याः तुच्छराग ! : तृच्छसर-हासायाः। प्रिय-वचनमलभमानायाः तुमछकाय-मन्मथ-निवासायाः, अन्य पत्तच्छक तस्याः धन्यायाः तदात्यात न याति ।
आश्चर्य स्तनान्तरं मुग्धाया येन मनो बम॑नि म माति || अर्थात-हे तुच्छराग [अन्यासक्त होने से जिस में अनुराग की स्वल्पता हो] नायक ! नायिका का मध्यभाग तुच्छ सूक्ष्म] है. यह बहुत कम बोलने के स्वभाव वाली है, उसके शरीर की रोमावली [रोम-पक्ति स्वल्प है, उसका हास्य-विनोद-प्रत्यन्त कम हो चुका है, उसको अपने प्रीतम का वाणीविलास भी अप्राप्त है, तथापि उस के दुबले पतले शरीर में मन्मथ [कामदेव ] का निवास है,उस नापिका के जीवन में जो कुछ और तुच्छता स्वल्पता] है,उस का वर्णन नहीं किया जा सकता! यह सब कुल होने पर भी एक बात का महान प्राश्चर्य है कि उस मुन्दरी के स्तनान्तर [स्तनों का मध्यभाग] की तुच्छता इतनी अधिक है कि उस के मध्य में मन जैसा अति सूक्ष्म पदार्थ भी नहीं समा सकता।
यहाँ पर-१-तुम्छमध्यायाः, २ -- तुन्छजस्पिध्या, ३-तुमछाछरोमावस्याः, ४ - तुमचतरहाताया-अलभमानायाः, ६ . तुच्छकाय-मन्मथ-निवासायाः, ७- अम्यायाः,-तस्या,E- मुग्धायाः ये ९ पद षष्ठ्यन्त हैं । प्रस्तुत सूत्र से इन के डस्-प्रत्यय के स्थान में है यह प्रादेश करके १-तुम्छ-म