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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः में जकार प्रादि वर्गों का लोप होना था,नकार को कार के आदेश की प्राप्ति हो रही थी, ग्रादि सभी कार्यों का प्रस्तुत सूत्र ने निषेध कर दिया। वृत्तिकार फरमाते हैं कि इसी प्रकार अन्य सूत्रों के उदाहरण भी देख लेने चाहिएं। भाव यह है कि १७७ वें सत्र से लेकर २६५ वें सत्र तक जितने भी विधिविधान कहे गए हैं, वे पैशाचीभाषा के जिन उदाहरणों में चरितार्थ नहीं होते, उनकी कल्पना या वि. चारणा स्वयं करने का प्रयास कर लेना चाहिए।
पैशाचीभाषा का विधिविधान ९७४ वें सत्र से प्रारम्भ होकर ९९५ वे सूत्र में समाप्त होता है। इस तरह इस भाषा के व्यवस्थापक २२ सत्र हैं। इन सत्रों में ही इस भाषा के विधि-विधान का वर्णन किया गया है। इन सत्रों में जो वर्णन कर रखा है, उस से अन्य पैशात्रीभाषा का जो विधिविधान है वह सब शौरसेनी भाषा के समान होता है, यह निर्देश करके सत्रकार ने शौरसेनीभाषा को पशाचीभाषाका मुलाघार स्वीकार किया है। पैशाचीभाषा के प्रकरण का यह अन्तिम सत्र है। इस प्रकरण की समाप्ति के साथ हो हमारी प्रात्म-गण-प्रकाशिका हिन्दी टीका में भी पंशाचीभाषा का विवेचन समाप्त होता है।
यह पैशाची का हुआ, परिपूरक व्याख्यान, ध्यान सहित इसको पढ़ो, विज्ञ बनो 'मुनि ज्ञान । ___ * पैशाची-भाषा-विवेचन समाप्त *
* अथ चूलिका-पैशाची-भाषा-प्रकरणन् * ९९६-चूलिका-पैशाचिके तृतीय-तुर्ययोराद्य-द्वितीयौ ।।४।३२५। चूलिकापैशाचिके वर्गाणां तृतीय-तुर्ययोः स्थाने यथासंख्यमाद्य-द्वितीयौ भवतः । नगरम,नकरं । मार्गणः,मक्कनो। गिरितटम किरितट । मेधः,मेखो । व्याघ्रः,वक्खो । धर्मः,खम्मो। राजा, राचा । जर्जरम, च.
चरं । जीमूतः, चीमूतो। निर्भरः, निच्छरो । झझरः, छच्छरो। तडागम, तटाकं । मण्डलम्, मण्टलं । डमरुकः, दमरुको । बाढम्, काठं । षण्ठः, सयठो । ढक्का, ठक्का । मदनः, मतनो । कन्दर्पः, कन्तप्पो। दामोदरः, तामोतरो। मधुरम्, मथुरं । बान्धवः, पन्थयो । धूलो,थूली। बा. लकः, पालको । रभसः, रफसो। रम्भा,रम्फा । भगवती,फकवती । नियोजितम, नियोचितं । कचिल्लाक्षणिकस्याऽपि । पडिमा इत्यस्य स्थाने पटिमा । बाढा इत्यस्य स्थाने ताठा। ९९७-रस्य लो या ८४।३२६। चूलिकापशाचिके रस्य स्थाने लो वा भवति ।
पनमथ पनय-पकुप्पित-गोलो-चलनग्ग-लग्ग-पति-बिम्बं । तससु नख-तप्पनेसु एकातस-तनु-थलं सुद्द ॥१॥ नच्चन्तस्स य लीला-पातुक्खेवेन कम्पिता वसुथा।
उच्छल्लन्ति समुद्दा सइला निपतन्ति तं हलं नमथ ॥२॥ ९८५नादि-युज्योरन्येषाम् । ८।४।३२७॥ चूलिकापैशाचिकेऽपि अन्येषामाचार्याणां मतेन तृतीय-तुर्ययोरादौ वर्तमानयोयुजिधातौ च पाद्यद्वितीयौ न भवतः । गतिः, गती। धर्म: