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चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीका-द्वयोपेतम् ★ जैसे पुल्लिङ्ग में सि आदि प्रत्ययों के आगे रहने पर शब्दों के दीर्घ स्वर को ह्रस्व तथा हस्थ स्वर को दीर्घ स्वर हो जाता है, वैसे स्त्रीलिङ्ग में भी दीर्घ स्वर को ह्रस्व मौर हस्व स्वर को दीर्घ स्वर हो जाता है। जैसे यहां पर तीसरे श्लोक में),१-भरिणता-भणिया को भरिणय (माकार को प्रकार), २-पुत्रि! = पुत्ती को पुसि! (ईकार को इकार), ३-भल्लीः भल्ली को भल्लि (ईकार को इकार), तथा ४-प्रविष्टा पट्ठा को पइट्टि (प्राकार को इकार) बनाया गया है । जस्-प्रत्यय का उदाहरण
एते सेऽश्वाः, एषा स्थली एते ते निशिताः खगाः ।।
अत्र मनुष्यत्वं जायते यो नापि बालयति वल्माम् ॥४॥ " अर्थात्-युद्धकाल में सेनापति अपने सैनिकों से कह रहा है कि ये वे थोड़े हैं, यह युद्ध-भूमि है
और वे ये तीक्ष्ण खड्म हैं, युद्ध-सामग्री से परिपूर्ण ऐसे युद्धकाल में जो योद्धा अपने घोड़े की लगाम पोछे नहीं खींचता, अर्थात् मागे बढ़ता है, उसी योद्धा का बीरत्व जाना जाता है ।
यहां पर १-स्थली बली को यलि (ईकार को इकार), २-निशिताः=निसिन को निसिआ (प्रकार को थाकार), ३-वल्गाम् = बगाको वग्ग (आकार को प्रकार),४-खड्गाः खग्गा का खग्ग (प्राकार को प्रकार), बनाया गया है। वृत्तिकार फरमाते हैं कि इसी प्रकार अन्य विभक्तियों में भी ऐसे उदाहरणों की कल्पना कर लेनी चाहिए, जिनमें दीर्ध को ह्रस्व और ह्रस्व को दीर्घ स्वर बनाया
१००२-अपनश मावास धार मम, इ, मोदी पयों को रहने पर प्रकार के स्थान Vi में उकारादेश से
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. . . . . बशमुखः भुवनभयंकरस्तोषित-शंकरी मिर्गतः रणवरे आरत।।
चतुर्मुखं. षण्मुखं ध्यावा एकस्मिन् लात्वा देबेन धदिलःशा अर्थात्-भुवन (संसार) के लिए भयंकर और तोषित-शंकर (जिसने तपस्या द्वारा शंकर को प्रसन्न कर रखा हो) देशमुख (दशमुख वाला) रावण श्रेष्ठ रथ पर पारूढ (सवार) हो कर निकला। ऐसा प्रतीत होता है कि मानों चतुर्मुख (चार मुख वाले) ब्रह्मा तथा ६ मुख वाले कार्तिकेय का चिन्तन करके दशमुखों को एक ही शरीर में लाकर देव (भाग्य) ने उसे बनाया है ।
सिंप्रत्यय परे रहने पर १--वशमुखः (दहमुह),२--भुवन-भयंकरः (भुवण-भयंकरु),३--तोषितशंकरः (तोसिन-संकर),४-मिर्गतः इणिग्माउ),५-आरतुः (चडिमाउ),६-घटितः धष्ठिप्रउ) इन शब्दों के प्रकार को उकार हुआ तथा अम्-प्रत्यय परे रहने पर-१-चतुर्मुखम् (चउमुहु) और२-षषमुलम् (छंमुह) इन शब्दों के प्रकार को उकार किया गया है। जैसे इन शब्दों में सि तथा अम् प्रत्यय परे होने पर प्रकार को उकार किया गया है, वैसे प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति के एक वचन के परे होने पर अन्य उदाहरणों में भी प्रकार को उकारादेश कर लेना चाहिए।
• * अथ जुल्लिङ्गीय-स्याक्षि-विनिः * १००३-सौ पुस्योद्वा । ८ । ४ । ३३२ । अपभ्रशे पुल्लिों वर्तमानस्य नाम्नोऽकारस्य सौ परे प्रोकारो वा भवति ।
अगलिप-नेह-निबट्टाहं जोमण-लक्खु वि जाउ । , बरिस-सएण वि जो मिलइ सहि ! सोक्खहं सो ठाउ ॥॥