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चतुर्षपादः * संस्कृत-हिन्दी-टीकाद्वयोपेतम् *
१२५ हैं, जो अपने पक्ष को छोड़कर दूसरे के पक्ष को प्रमाणित कर रहे हैं ?),यहां पर शौरसेनीभाषा के ९३६ वे सूत्र से भवद और भगबब इन दोनों शब्दों के नकार को मकार देश किया गया है। ७-आर्य ! एष खलु कुमार: मलयकेतुः-अप ! एशेखु कुमाले मलयकेदूं (हे प्रार्य ! निश्चय ही यह कुसार मलयकेतु है). यहां पर शौरसेनी पाणा के ९३.७ वें सूत्र से य' के स्थान में 'ब' यह प्रादेश किया गया है। - अरे कुम्मिले ! कथय - प्रले कम्भिला! धेहि (परे कॉम्भला, कहो) यहां पर शौरसेनीभाषा के ९३८ वें सूत्र से थकार को धकार किया गया है। -अपसरथ आः ! अपसरप-मोशलध अय्या ! प्रोशल हे पार्यो ! हटो, हटो), यहाँ पर शौरसेनीभाषा के ९३९३ सूत्र सेहव'के हकार को धकार किया गया है । १०-भवति = भोदि (वह होता है), यहां पर शौरसेनी भाषा के ९४० - सूत्र से भूधातु के हकार को भकार किया गया है। ११-अपूर्व अपुरवे (अदभुत), यहां पर शौरसेनीभाषा के ९४१ व सूत्र से पूर्व शब्द के स्थान में 'परव' यह प्रादेश किया गया है । १२-किलु शोभनो ब्राह्मणोऽसि इति कलिया राशा परिग्रहः सः ?==कि रख शोभणे बम्हणे शित्ति कलिय लन्ना पलिगहे दियो ? (क्या"निश्चय ही तुम अच्छे ब्राह्मण हो"यह जानकर राजा ने तुम्हें परिग्रह (सम्पत्ति) दिया है 1), यहां पर शौरसेनीभाषा के ९४२ वें सूत्र से पत्या प्रत्यय के स्थान में 'इय' यह आदेश करके कलिय'यह शब्द बनाया गया है। १३ . कृत्वाकडून (कर के), गत्या गडम (जा करके), यहां पर शौरसेनी-भाषा के ९४३ ३ सूत्र से कु और गम् धातु से परे पाए कस्वा प्रत्यय के स्थान में डित अडअ यह आदेश करके काम और गडुझ ये रूप बनाए गए हैं। १४-अमात्यराक्षसं प्रेक्षित इत एवं आगच्छति प्रम
-लरकशं पिक्खिदु इदो य्येव प्रगश्चदि [वह अमात्य (मंत्री) रूप राक्षस को प्रर्थात् वह राक्षस नामक मंत्री को देखने के लिए इधर ही पा रहा है ]; यहां पर शौरसेनी भाषा के ९४४ ३ सूत्र द्वारा इच्' इस तिवादेश को 'वि' यह आदेश किया गया है। १५-परे । किमेवः महान कलकलः भूयते अले ! कि एशें महन्दे कलयले शुणी प्रदे ? (अरे ! यह क्या महान कोलाहल सुना जा रहा है ?), यहां पर शौरसेनी-भाषा के ९४५ सुन द्वारा एच के स्थान में दे यह आदेश किया गया है । १६ तस्मात कस्मिन् गदः रुधिर-प्रियो भविष्यति? =ता कहि न गदे लुहिलप्पिए भवविस्सदि ? (उस से किस में - धिर-प्रिय (रक्त को समाप्त करने वाला) रोग होगा?, यह अनिश्चत है), यहां पर पढ़ा नु यह अव्यय‘पद है । इसके अर्थ हैं-सन्देह, अनिश्चय । यह संभावमा और अवश्य इस अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। यहां पर शौरसेनी भाषा के ९४६ वें सूत्र से भविष्यदर्थक प्रत्यय से पूर्व स्सिका प्रयोग किया गया है। १७अहमपि भागुरायणात मनां प्राप्नोमि-ग्रहं पिभागलायणादो मुह पावेमि (मैं भी भागुरायण से मुद्रा (अंगूठी, तगमा, गुप्त भेद, रुपया प्राप्त करता है),यहाँ पर शौरसेनी भाषा के ९४७ वे सूत्र से अमि-प्रत्यय के स्थान में डादो (पादो) यह प्रादेश किया गया है। १८-शृणुथ इदानीम् अहं शकावतार-तीर्थ-निवासी धोवरः शुणध दाणि हगे शक्कावयाल-तिस्त-णिवाशी घीवले (अब सुनो, मैं शकायतार नामक तीर्थ का रहने वाला धीवर हूँ), यहां पर शौरसेनी भाषा के ९४८ वें सत्र से इवानीम् इस अध्यय के स्थान में 'वाणियह आदेश किया गया है। १९-तस्मात पायद प्रविशामिता याव पविशामि (इसलिए जब तक मैं प्रवेश करता हूँ), यहाँ पर शौरसेनीभाषा के ९४९ ३ सूत्र से तस्मात्' इस शब्द के स्थान में 'ता' यह प्रादेश किया गया है। २०-युक्तम् इदम् - युक्तं णिमं (यह युक्त-ठीक है), सदृशम् । इवम् - शालिशं णिमं यह समान है। यहां पर शौरसेनीभाषा के ९५० वें सूत्र से मकार से प्रागे, इकार . के पूर्व, णकार का पागम किया है । २१-सम एबमम व्येव (मेरा ही), यहां पर शौरसेनीभाषा के ९५१ वे सूत्र से एवं' इस अर्थ में प्येब'इस निपास का प्रयोग किया गया है। २२ हे चरिके ! हजे.