________________
चतुर्थपादः
* संस्कृत-हिन्दी-टीका-द्वयोपेतम् ★ इन सूत्रों में जितने भी उदाहरण हैं,इनके मध्य में इतने विधिविधान तो तदवस्थ (प्राकृत-भाषा के समान) ही शौरसेनी भाषा में प्रयुक्त होते हैं । इसके अतिरिक्त, ये उदाहरण शौरसेनी भाषा में इस तरह के होते हैं, अर्थात् शौरसेनी-भाषा-सम्बन्धी विधिविधान द्वारा अमुक उदाहरण शौरसेनी के बन जाते हैं ? इस प्रकार का विभाग प्रत्येक सूत्र की अपेक्षा स्वयं विचार करके समझ लेना चाहिए। जैसे..... 'अन्तर्वेषिःयह शब्द है, प्राकृतभाषा में इसका अन्तावेई, यह रूप बनता है, किन्तु शौरसेनी भाषा के नियमानुसार ९३१ सूत्र से तकार को देकार हो जाता है, अतः वहां अन्दावेधी (मध्य की वेदिका) यह रूप होता है। इसी भांति-----युवहि-मनः= जुवदि-अणो (जवान स्त्रियाँ), २---मनःशिला-मणसिला (लाल वर्ण की एक उपधातु) ये उदाहरण समझने चाहिएं । युवति-जन का प्राकृत भाषा में 'जुबह-अगो' किन्तु शौरसेनी भाषा के नियमानुसार तकार को दकार होने से तथा जकार का लोप न होने से युपषि-जगी ऐसा रूप बनता है, तथा 'मरासिला यह शब्दः प्राकृत भाषा के समान ही शौरसेनी भाषा में प्रयुक्त होता है। इस शब्द पर शौरसेनी भाषा का कोई नियम लागू नहीं होता, अतः यह प्राकृत भाषा की भांति शौरसेनीभाषा में प्रयवहृत होता है। इसी भांति प्राकृतभाषा-प्रकरण में वणित अन्य शब्दों में कहां-कहां शौरसेनी भाषा का विधिविधान चरितार्थ होता है, और उनमें कहां-कहां परिवर्तन प्राता है ? यह सब पाठकों को स्वयं समझने का प्रयास करना चाहिए।
९५४ ३ सत्र का ऊहापोह करने के अनन्तर बिना किसी संकोच के यह कहा जा सकता है कि शौरसेनी भाषा का मूल प्राधार प्राकृत भाषा ही है। प्राकृत भाषा को यदि शौरसेनी भाषा की जननी कहें तो यह उपयुक्त ही प्रतीत होता है। यही कारण है कि ये दोनों भाषाएं एक दूसरे के बहुत अधिक निकट है, इन में बहुत स्वल्प अन्तर है। पाठक जानते ही हैं कि प्राकृतभाषा के विधिविधान का वर्णन करने वाले ९३० सूत्र हैं, जबकि शौरसेनी भाषा के विधिविधान का वर्णन केवल २७ सूत्रों द्वारा किया गया है। इस से स्पष्ट है कि प्राकृत-भाषा और शौरसेनी भाषा में केवल २७ कार्यो की भिन्नता है,
शैषः सब कार्य एक जैसे हैं, इन में कोई अन्तर नहीं है। .... शौरसेनी भाषा का प्रारंभ ९३१ वे सूत्र से होता है, और इसकी समाप्ति ९५७ वें सत्र में हो जाती है। प्रस्तुत सूत्र शौरसेनी भाषा के विधिविधान का अन्तिम विधायक सूत्र है। इसकी धास्या के साथ शौरसेनी भाषा सम्बंधी विवेचन भी समाप्त होता है।
शूरसेन के वेश की, भाषा का व्याख्यान । पूर्ण हुआ, गुरुदेव को, किरपा से मुनि ज्ञान ||
* शौरसेनी-भाषा-विवेचन समाप्त *
* अथ मागधी-भाषा-प्रयकरण * १५८-प्रत एत्सौ पुंसि मागध्याम् । ८ । ४ । २८७ । मागध्या भाषायां सौ परे प्रकारस्य एकारो भवति, पुंसि-पुल्लिगे। एषः मेषः । एशे मेशे। एशे पुलिशे । करोमि भदन्त !, करेमि भन्ते ! । अत इति किम् ? बिही । कली । गिली । (सीति किम् ? जलं । यदपि "पोराणमत-मागह-भासा-निययं हवइ सुत्तं" इत्यादिनार्षस्य अर्धमागध-भाषा-नियतत्वमाम्नायि वृद्धस्तदपि प्रायोऽस्यैव विधानान्न वक्ष्यमारण-लक्षणस्य । कयरे पागच्छइ । से
१...झौरसेनौ भाषा। २. कृपा ।