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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपायः चीनयुग में जिस भाषा द्वारा अपना व्यवहार सम्पन्न किया करते थे, वहीं भाषा मागधी कहलाती है। मागधी भाषा का प्राकृत और शौरसेनो भाषा के साथ कितना सम्बन्ध है ? ये भाषाएं आपस में एक दूसरे के कितनी तिमा है ? आदि माहातों को लेकर इस प्रकरण में चिन्तन प्रस्तुत किया जा रहा है।
९५८-यदि अकारान्त शब्द पुल्लिङ्ग हो तो मागधी भाषा में अकार को एकारादेश हो जाता है । जैसे-१-एषः मेष: एशे मेशे (यह भेड़ है), २ एषः पुरुषः एशे पुलियो (यह पुरुष है),३-कसेमि भवन्त ! करेमि भन्ते ! (हे भगवन् ! मैं करता हूं), यहाँ पर प्रकार को एकार किया गया है। प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने "अतः" (अकार को) इस पद का ग्रहण क्यों किया है ? उत्तर में निवेदन है कि -१-निषिः-णिही (खजाना), २-करिः कली (हाथी), ३.गिरि-गिली (पहाड़) इन अकारान्त-भिन्न शब्दों के इकार को एकारादेश न हो जाए इस उद्देश्य से सूत्रकार ने "अतः" इस पद का उल्लेख किया है। घुनः प्रश्न उपस्थित होता है कि सूधपठित सि (पुल्लिग में) इस पद के ग्रहण करने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर में निवेदन है कि जलम् - जलं (पानी) प्रादि पुल्लिङ्ग-भिन्न (स्त्रीलिङ्ग तथा नपुंसकलिइम) शब्दों के प्रकार के एकारादेश का निषेध करने के लिए सूत्रकार ने 'सि' इस पद का प्राश्रयण किया है। जल माकलिङ्ग का शब्द है, अत: प्रस्तुत सूत्र से यहां पर प्रकार को एकारादेश नहीं हो सका। बृहत्कल्पसूत्र के लघुभाष्यकार एक स्थान पर लिखते हैं
पुख्याधर-संजुतं घेरगकर सतंतमविरुवं ।
पोराणमतमागह-भासा-निययं हवइ सुतं ।। अर्थात्---सूत्र पाच प्रकार का माना गया है । जैसे---१-पूर्वापरसंयुक्त जिस में पहले और पीछे का विरोध हो, जिसके पहले और पिछले कथन में कोई विरोध न माता हो, २-वैराग्यकरवैराग्य (विषय-सुख के प्रति उदासीन भाय) को पैदा करने वाला हो, ३-बसंत्राविबद्ध अपने सिद्वान्त से विरोध न खाता हो,४-पौराण-तीर्थकर तथा गणधर प्रादि पूर्व पुरुषों से प्रणीत (निर्मित) हो, ५-अर्द्धसगाव-भाषा-नियत अर्द्धमागधी भाषा (प्राकृत का वह रूप जो पटना और मथुरा के बीच बोला जाता था अथवा प्राधे मगध देश की भाषा) से नियत (नियम द्वारा स्थिर, बन्धा हुमा) हो, अर्थात् अर्द्धमागधी भाषा में लिखा हुआ हो।
बृहत्कल्पसूत्र के भाष्य की उक्त गाथा के अन्तिम पौराणम भाग-भाषा-मियतं भवति सूत्रम्" इन दो चरणों का प्रस्तुत सूत्र में वृत्तिकार ने उल्लेख किया है । वृत्तिकार फरमाते हैं कि जो "सूत्र पौराण और प्रर्द्धमाघ-भाषा-नियत होता है"यह कहकर बुद्ध (पूर्व) पुरुषों ने प्रार्षप्राकृत को अर्द्ध-मागध की भाषा के नियमों से बंधा हुमा स्वीकार किया है,वह प्रायः प्रस्तुत सूत्र(९५८) के विधान की अपेक्षा से ही स्वीकार किया गया है। आगे कहे जाने वाले (९५९ आदि) सूत्रों के विधिविधान को यागे रख कर उन्होंने उक्त मान्यता का निर्देश नहीं किया ! भाव यह है कि पार्ष-प्राकृत (जनागमों) में प्रायः इसी सूत्र का कार्य दिखाई देता है, मागधी-भाषा में वणित अभ्य सूत्रों द्वारा विहित नियमों का पार्षप्राकृतं में उपयोग नहीं किया गया । पार्षप्राकृत के उदाहरण इस प्रकार हैं-१-कतर मागच्छति= कयरे मागस्छ ? (दो में से कौन पाता है ?); २-सतादृशः खसहः जितेन्द्रियः= से तारिसे दुक्ख