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* प्राकृत-व्याकरणम् *
चतुर्थपादः तथा अपभ्रंश का बहुत बड़ा हाथ है, क्योंकि इन तीनों (शौरसेनी, अपभ्रंश तथा खड़ी बोबी हिन्दी) का क्षेत्र (मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश) समान है । शौरसेनी भाषा का क्या विधिविधान है ? प्राकृतभाषा से इसका क्या मौलिक भेद है ? आदि बातों के सम्बन्ध में प्रस्तुत प्रकरण में प्रकाश डाला जा रहा है।
११-शौरसेनी भाषा में पनादि (जो प्रादि में विद्यमान न हो) तकार के स्थान में दकारादेश होता है। यदि वह तकार वर्णान्सर (अन्य वर्ण) से संयुक्त न हो। जैसे-१-ततः पूरित-प्रतिम मातिना मंत्रितःतदो पूरिद-पदिश्प्रेण मन्तिदो (इस के अनन्तर पूर्ण को हुई प्रतिज्ञा वाले हनुमान ने उसे सलाह दी), २-एतस्मात् = एवाहि, एदायो (इस से), यहां पर प्रसंयुक्त तथा अनादि तकार को दकार किया गया है। प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत सूत्र में "अनावो" यह पद देने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर में निवेदन है कि सपा कुरत, यथा तस्य राशः अनुकम्पनीया भवामि-तधा करेष जधा तस्स राइणो प्रणुकम्पणीमा भौमि (तुम वैसा काम करो, जैसे मैं उस राजा को धनुकम्पनीया (मनुकम्पा का पात्र) हो जाऊँ प्रादि स्थलों में पद के प्रादि में विद्यमान तकार के स्थान में दकारा
न हो, इस विचार से सूत्रकार ने "अना (ग्रादि में प्र-विद्यमान)" यह पद पढा है। पुनः प्रश्न उपस्थित होता है कि सूत्रकार के अयुक्तस्य (संयोग से रहित हो)"यह पद ग्रहण करने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर में निवेदन है कि-१-मत्तः-मत्तो (मद बाला, अभिमानी), २-आर्यपुत्रः-प्रव्य उत्तो (पति, स्वामी का पुत्र), ३-असंभावित-सत्कारम्-असंभाविद-सक्कारं (जिस के सत्कार की कोई संभावना नहीं, उसको), ४-हे शकुन्तले !हला सउन्तले ! (हे शकुन्तले !, शकुन्तला कुमारी को सम्बोधित किया जा रहा है),इन उदाहरणों में तकार संयुक्त है,दूसरे व्यजन से सम्बन्धित है अतः यहाँ संयुक्त तकार को दकार न हो जाये, इस दुष्टि से सुत्रकार ने 'अयुस्तस्य' इस पद का उल्लेख किया है। भाव यह है कि शौरसेनी भाषा में तकार को दकार हो जाता है,परन्तु वह अनादि और असंयुक्त होना चाहिए।
३२-वर्णान्तर (मन्य वर्ण से) से संयुक्त तकार यदि प्रधःवर्तमान (संयुक्त वर्ण में दूसरा) हो तो उसे कहीं-कहीं पर लक्ष्य (प्रयोग) के अनुसार कार का आदेश हो जाता है। जैसे-१---- हान महन्दो (सब से बड़ा), २-निश्चिन्तः निच्चिन्दो (चिन्ता से रहित), ३-अन्तःपुरम् - अन्देउर (रानियों का निवास स्थान), यहां पर तकार संयुक्त होने पर प्रधः-वर्तमान था, संयुक्त वर्ण में दूसरा था, अतः उसे प्रस्तुतसूत्र से दकारादेश कर दिया गया है।
९३३- शौरसेनी भाषा में तावत् इस अध्ययपद के धादिम तकार को विकल्प से दकार होता है। जैसे-सावत्--दाव, प्रादेश के प्रभाव-पक्ष में साव (तब तक) यह रूप बनता है।
३४-शौरसेनी भाषा में इन के नकार को प्रामन्त्रण सम्बन्धी सिप्रत्यय परे रहने पर (भति सम्बोधन के एकवचन में) विकल्प से प्राकारादेश होता है। जैसे-१--भो कञ्चुकिन् ! या भो कानुश्मा ! हे कन्चुकिन् !, अन्तःपुर के सेवक!),२-सुजिन !-सुहिया ! (हे सुखमय जीवन व्यसीत करने वाले !), प्रादेश के प्रभावपक्ष में-१-भो सपस्थिन् ! भो तवस्सि ! (हे तपस्या करने वाले !), २-भो मरास्थिन् != भो मणस्सि ! (हे विचारक !) ऐसे रूप बनते हैं। यहां पर वैकल्पिक होने से इन के नकार को प्राकार नहीं हो सका।