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:: असुथपादः .
* संस्कृत-हिन्दी-टीका द्वयोपेतम् * होना) अर्थ भी होता है। जैसे-रिगति-रिगइ-प्रविशति, गच्छति वा वह प्रवेश करता है,अथवा वह गमन करता है।४-कांक्षि धातु का मर्थ धातुपाठ में सक्षा करना होता है, किन्तु इसके अलावा इसका खाना यह अर्थ भी होता है। जैसे-कांक्षते-वम्फइम इच्छति, खादति वा वह चाहता है, इच्छा करता है अथवा वह खाता है। यहां काक्षि धातु को ८६३ सूत्र से 'धम्फ' यह मादेश किया गया है। ५-फरक पातु का धातुपाठ में नीचे पाना' यह अर्थ होता है, किन्तु इससे भिन्न इसका--वि. लम्ब देरी करना) यह अर्थ भी होता है। जैसे-फक्कतिथक्कइनीचां गति करोति, विलम्बयति वा-वह नीचे जाता है, अथवा वह विलम्ब करता है। यहां फरक धातु के स्थान में ७५८ सूत्र से पक्क प्रादेश किया गया है । ६-~-धि-उपसर्ग-पूर्वक सम् धातु रोने पर्थ में तथा विप्राङ् (आ) उपसर्ग पूर्वक लभ् धातु पालभ इस अर्थ में प्रयुक्त होता है किन्तु इन दोता धातुमों का प्रयोग 'भाषण करना इस.पर्थ में भी हो जाता है। जैसे-विसपति, उपालम्भते मज विलपति, उपालम्भते भाषते वा वह रोता है, वह उपालंभ देता है, वह भाषण करता है। इस तरह झंखए इस पद के तीन अर्थ हो जाते हैं। ८१९ सत्र से विलप के स्थान में तथा १२७ सूत्र से उपालम्भ के स्थान में भडः यह प्रादेश किया गया है। इसी प्रकार७-प्रतिपालयति-पडिवालेइ-प्रतीक्षते, रक्षति वावह प्रतीक्षा करता है अथवा वह रक्षा करता है। प्रति उपसर्ग पूर्वक पाल् धातु प्रतीक्षा अर्थ में ध्यबहुत होता है, किन्तु प्रस्तुतसूत्र के निर्देश से इसका "रक्षा करना" यह अर्थ भी होता है। इस तरह यह सूत्र प्राकृत-भाषा में धातुमों को द्वयर्थक बना डालता है।
कई एक आचार्यों का मत है कि यदि धातुओं के साथ कई एक उपसों का संयोजन हो तो जनका अर्थ वैकल्पिक (अनेक अर्थों का बोधक) नहीं रहता है, किन्तु उन का नित्य ही अर्थान्तर (दूसरा 'मर्थ) हो जाता है। जैसे--प्रहरतिपहर (वह युद्ध करता है),ह धातु का अर्थ हरण (चोरी)
रना होता है, किन्तु प्रउपसर्ग का योग होने से इस प्रर्थान्तर हो गया और यह प्रान्तर वैकल्पिक नहीं रहता है किन्त नित्य ही माना जाता है। इसी प्रकार भागे भी समझ लेना चाहिए। २..संहरति संहरह (वह संवरण-चुनाव करता है), संहरति का वह सहार करता है, ऐसा अर्थ भी होता हैं। 8-अनारति अणहर (वह समान होता है), ४---मिहरतिनीहरइ (वह मल-त्याग करता है),.-विहरति विहरइ (वह क्रीडा करता है), ६-आहरतिमाहरई (वह पाहार करता है, बह खाता है), ७-प्रतिहरति-पडिहइ (फिर से परिपूर्ण करता है),५--परिहरति परिहरइ (बह परिहार करता है,वह छोड़ता है),ह-उपहरति उवहरई (वह पूजा करता है, वह उपहार देता है, १०-याहरते-वाहरइ (वह बुलाता है), ११-प्रवसति-पवसइ (वह प्रवास करता है, वह देशा'तर (दूर मन्य देश को) जाता है), १२---उसषुपति-उच्चुपइ (वह चढता है), १३-उल्लुहति=3ल्लुहद (वह निकलता है) इस तरह उपसर्गों के संनियोग (सामीप्य) से धातुओं के अर्थ परिवर्तित हो परते है।
पहले सूत्र से लेकर ९३० सूत्र तक ऊपर जो कुछ लिखा गया है, यह सब प्राकृत भाषा का विधि-विधान.पा। ९३० सूत्रों द्वारा आचार्य श्री हेमचन्द्र जी ने प्राकृत-भाषा-सम्बन्धी नियमों तथा उपनियमों का निर्देश कर दिया है। इस सूत्र की समाप्ति के साथ ही प्राकृत-भाषा-सम्बन्धी विवेचन समाप्त होता है।
प्राकृत-माया कामा, परिपूरण पाल्यान,