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पतितोद्धारक जैनधर्म आत्मा या जीबका स्वामाविक प्रकाश है और जब धर्म जीवात्माका स्वाभाविक प्रकाश है तब उसके उपभोगका प्रत्येक जीवधारीको अधिकार है। अधिकार क्या । वह तो उसकी अपनी ही चीज है। मर्यका प्रकाश और गंगाका निर्मल नीर तो जीवसे दुरकी वस्तुयें है। पर प्रत्येक जीवधारी उनका उपभोग करनेमें पूर्ण स्वतंत्र है ! अब भला कहिये. वे स्वयं अपनी चीज, अपने स्वभाव, अपने धर्म के अधिकारी क्यों न होवें ? अतः मानना पडता है कि 'धर्म' जीवमात्रका जन्मजात ही नहीं स्वभावगत अधिकार है। और अपन स्वभावमे कोई कभी वंचित नहीं किया जासक्ता । वह तो प्रकृतिकी देन है, उसे भला कौन छीने ? छीननेसे वह छिन भी नहीं सकती। सूर्यसे कौन कहे कि तुम अपना प्रकाश एक दीन हीन रंककी कुटियामें मत जाने दो ? और कहनेकी कोई धृष्टता भी करे तो वह अरण्यरोदन मात्र होगा । प्रकृतिको पलटनेकी सामर्थ्य भला है किसमें ? किन्तु प्रश्न यह है कि जीवका धर्म अथवा स्वभाव है क्या ?
इस प्रश्नको हल करनेके लिये हमें जगतके धर्मका स्वरूप। प्राणियोंपर एक दृष्टि डालनी चाहिये । देखना
चाहिये कि जगतके प्राणी चाहते क्या है ? उनकी सहज सामूहिक क्रिया क्या है । उनपा जरा गहरी दृष्टि डालनेसे पता चलता है कि प्रत्येक प्राणी मुखसे जीवन व्यतीत करना चाहता है। उसे आनंद की वाञ्छा है और उस आनंदकी प्राप्तिके लिये वह अपने ज्ञानको विसन करने तथा अपनी शक्तिको उस ज्ञानके इशारे पर व्यय कानक लिय प्रयत्नशाल है। चाहे नन्हासा