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समपाल पाण्डाल।
[४५ ___ यमपाल तो पहलेसे ही अपने व्रतपर दृढ़ था। कुटुम्बमोह उसे किंचित् शिथिल बना रहा था। किन्तु पत्नीके विश्वासघातने अब उसकी वह शिथिलता भी दूर करदी । वह निश्चय लेकर राजाके सम्मुख जा डटा । अब वह अभय था। अहिसाधर्म उसके रोम रोममें समा रहा था । सिपाहियोंने राजासे कहा
'सरकार ! यमपाल राजाज्ञाके अनुसार आज किसीको भी प्राणदण्ड देनेसे इनकार करनेकी धृष्टता कर रहा है ।'
___ " है ! उसकी इतनी हिम्मत ! यमपाल ! तू राजाज्ञाका उल्लंघन करनेका दुःसाहस करता है ? क्यों नहीं अपराधीको शूलीपर चढ़ाता ?'-राजाने कड़क कर कहा।
यमपाल बोला-'सरकार अन्नदाता हैं-सरकारका नमक मैंने खाया है-पर सरकार, मैं अपने व्रतको भङ्ग नहीं कर सक्ता ! सरकार, यह अधर्म मुझसे न होगा।' ___रा०--'चाण्डाल! क्या बकता है ? धर्मका मर्म तू क्या जाने ? नेरे लिये और कोई धर्म नहीं है । राजाकी आज्ञा पालना ही तेरा धर्म है ।"
यम०-'नाथ ! मैं अपने कर्मके कारण चाण्डाल हं अवश्य; पर वह सब कुछ पापी पेटके लिये करना पड़ता है ! पापी पेटकी ज्वाला शमन करनेके लिये किया गया काम, अन्नदाता, धर्म कैसा ?'
___ रा०-हैं-हैं ! धर्मका उपदेश देने चला है, बदमाश ! अपनी औकातको देख ! छोटे मुंह बड़ी बात ! याद रख, जिन्दा नहीं बचेगा !'