Book Title: Patitoddharaka Jain Dharm
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 194
________________ dutorianimannamrusiORah unu.tuminoununia १८०] पतितोदारक जैनधर्म । आर्य और वास । आर्य हो वह दास होसक्ता है और दास आर्य।" "हां गौतम ! मैंने यह सुना है !" "अच्छा आश्वलायन ! बताओ ब्राह्मण अपनेको श्रेष्ठ किस बलपर कहते है और कैसे अन्योंको नीच ? " "ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं, यह मान्य विषय है !" "तो क्या मानते हो आश्वलायन ! क्षत्रिय प्राणिहिंसक. चोर. दुराचारी, झुठा, चुगलखोर, कटुभाषी, बकवादी, लोभी, द्वेषी हो तो क्या काया छोड़, मरने के बाद वह दुर्गति-नरकम उत्पन्न होगा या नहीं ? ऐसे ही ब्राह्मण इन दुष्कमौके करनेसे उस गतिको प्राप्त करेगा या नहीं है और वैश्य या शूद्र क्या वैसे दुष्कर्मी हो उस गतिको प्राप्त नहीं होंगे।" 'हे गौतम ! सभी चारों वर्ण प्राणिहिसक आदि हो नरकमें उत्पन्न होंगे किन्तु ब्राह्मण तो श्रेष्ठ ही माने जाते है ।' 'तो क्या मानते हो आश्वलायन ! क्या ब्रामण ही प्राणिहिंसा आदि पापोंसे विरत होता है और मरणोपरान्त स्वर्गमें जाता है ? क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नहीं ?' 'नहीं, गौतम ! चारों ही वर्ण शुभ कर्मोसे स्वर्ग पाते है।' 'आश्वलायन ! तो फिर ब्राह्मण अपनेको कैसे सर्वश्रेष्ठ और अन्योंको नीच कहते हैं।' आश्वलायन बिचारा क्या कहता ? गौतमबुद्ध इसपर फिर बोले: "माश्वलायन ! मानलो एक अत्रिय राजा नाना जातिके सौ पुरुष इकट्ठे करे और उनसे कहे कि तुमसे जो ब्राह्मण, क्षत्री और

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