Book Title: Patitoddharaka Jain Dharm
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 216
________________ पतितोद्धारक जैन धर्म | BADI... I बनारस में आ जमे । कबीर के दुश्मनोंने इसे सोने सा अवसर समझा । कबीर की माको साथ लेकर ब्राह्मणोंने जाकर बादशाहसे शिकायत की कि 'हुजूर ! कबीर बड़ा जुल्म ढारहा है । उल्टा-सीधा उपदेश देकर लोगों को बहका लेता है । न वेद मानता है और न कुरान | उसका शिष्य होकर मनुष्य न मुसलमान रहता है और न हिन्दु ।' बादशाह को भी यह बुरा लगा उसने कबीरको पकड़वा मंगवाया | कबीर के हृदयमें बादशाहके लिये जरा भी आदर या उसका भय नहीं था । उसने बादशाहको सलाम भी नहीं किया । बादशाह गुस्से से लपलपाता हुआ बोला कि "कबीर ! तू लोगों को दीन व धर्मसे गुमराह कर रहा है।" २०२ ] कबीरने हंसते हुये कहा - " गुमराह नहीं बल्कि राहे रास्तपर उनको लगाता हूं। हिन्दुओंके राम और मुसलमानोंके रहीम भिन्न नहीं हैं; अनुसन्धान करनेसे वे मनुष्यको अपने भीतर मिलेंगे । " बादशाहको कबीरका यह मत नहीं रुचा । उसने कबीरको प्राण दण्डकी सजा दी; किन्तु कबीरका आयुकर्म प्रबल था वह बाल बाल बच गया। अब लोग उसे एक सन्त पुरुष समझने लगे । कबीर चित्त शुद्धि पर अधिक जोर देते थे। और क्रियाकाण्डके वह हिमायती नहीं थे। वह कहते थे - 44 मनका फेरत युग गयो, गयो न गनका फेर । करका मनका छोड़कर, मनका मनका फेर ॥ " कबीर जाति-पांतिको एक तात्विक भेद नहीं मानते थे ।

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