Book Title: Patitoddharaka Jain Dharm
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 218
________________ १०४ ] इस तरह ठीक ही जातिमटका निषेध किया था । वह स्वयं इस क्षेत्र एक जीता जागता प्रमाण था । जुलाहा होकर भी वह अनेarer श्रद्धास्पद और मार्गदर्शक बना था । पतितोद्धारक जैनधर्म आखिर बनारस में ही मणिकर्णिका घाटके उस पार कबीरने अपने इस शरीर को छोडकर परलोकको प्रस्थान किया था । मरते-मरते भी उन्होंने लोकमुढताका प्रतीकार किया, क्योंकि लोगों को विश्वास था कि उस पार जाकर शरीर छोड़ने से मनुष्य दुर्गतिमें जाता है । 4 + सागश यह कि जन्म से मनुष्य चाहे जिस जाति और परिस्थिति रहे; परन्तु यदि उसे श्रेष्ठ गुणोंको अपनानेका अवसर दिया जाय तो वह अपनी बहुत कुछ आत्मोन्नति कर सक्ता है । इस खण्ड में वर्णित उपरोक्त ऐतिहासिक कथायें हमारे इस कथन की पुष्टि करती हैं । मतः मनुष्य मात्रका यह धर्म होना चाहिये कि वह जीव मात्रको आत्मोन्नति करनेका अवसर, सहायता और सुविधा प्रदान करे किसीसे भी विरोध न करे ! विश्रप्रेमका मूलमन्त्र ही जगदोद्धारक है । निःसन्देह अहिंसा ही परमधर्म है । कालीगंज (एटा) १९॥. बजे मध्याह्न अहिंसा परमो धर्मः, यतो धर्मस्ततो जयः > कामताप्रसाद जैन । ता० १२-१० - ३.४

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